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श्री आनन्दघन पदावली-२७५
भावार्थ-इस पद में चेतन मरते समय काया को अपने साथ चलने के लिए अनेक युक्तियों से बोध देता है। उसका उत्तर देती हुई काया कहती है कि हे चेतन ! अनादिकाल से मेरी ऐसी रीति है कि मैं एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय साथ नहीं जाती। हे चेतन ! तेरे साथ मेरे सम्बन्ध के कारण तेरे द्वारा किये हुए पुण्य और पाप साथ आयेंगे, जिससे पर-भव में तू पुण्य-पाप के कारण शुभ-अशुभ देह धारण करेगा और सुख-दुःख भोगेगा। संसार में केवल जिनेश्वर भगवान का नाम ही सत्य है। सुगुरु के वचनों से आत्मधर्म की प्रतीति होती है। अतः श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि वह समस्त उपकार सुगुरु का है।
(४३ ) हुं तो प्रणमु सद्गुरु राया रे, माता सरसती वंदु पाया रे । हुं तो गाऊँ आतमराया, जीवन जी बारणे मत जाजो रे । तुमे घर बैठा कमावो, चेतन जी बारणे मत जाजो रे ॥ १ ॥ तारे बाहिर दुर्गति राणी रे, केता शुकुमति कहे वाणी रे ।
तुने मोलवी बाघशे ताणी ।। जीवन जी० ॥ २ ॥ तारा घरमा छे त्रण रतन रे, तेनु करजे तु तो जतन रे । . . ए प्रखूट खजानो छे धन्न ।। जीवन जी० ॥ ३ ॥ तारा घरमां बैठा छे धुतारा, तेने काढो ने प्रीतम प्यारा रे ।
- एहथी रहोने तुमे न्यारा ।। जीवन० ।। ४ ।। सत्तावन ने काढो घर में बैठा थी रे ,
वीश ने कहो जाये इहांथी रे । पछी अनुभव जागशे मांहे थी रे ।। जीवन० ॥ ५ ।। सोल कषाय ने दियो शीख रे,
अढार पापस्थानक ने मंगावो भीख रे । पछे आठ करम नी शी बोक ।। जीवन० ।। ६ ।।