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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७६ चार ने करो चकचूर रे, पांचमी शु थामो हजूर रे ।
पछे पामो प्रानन्द भरपूर ।। जीवन० ।। ७ ।। विवेक दोवे करो अजुवालो रे, मिथ्यात्व अंधकार टालो रे । - पछे अनुभव साथे म्हालो ।। जीवन० ॥ ८ ॥ सुमति साहेली शु खेलो रे, दुर्गति नो छेड़ो मेलो रे ।
पछे पामो मुक्तिगढ़ हेलो ।। जीवन० ।। ६ ।। ममता ने केम न मारो रे, जीती बाजी कांई हारो रे ।
__ केम पामो भवनो पारो ।। जीवन० ।। १० ।। शुद्ध देव गुरु सुपाय रे, मारो जीव आवे कांई ठाय रें।
पछे प्रानन्दघन मम थाय ।। जीवन० ।। ११ ।।
टिप्पणी-यह पद साराभाई मणीलाल' नवाब द्वारा सम्पादित 'श्री आनन्दघन पद्य रत्नावली' पुस्तक से उद्धत किया गया है। पद की भाषा गुजराती होने के कारण निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत पद श्रीमद् आनन्दघन जी का ही है।
(४४) . , कन्थ चतुर दिल ज्ञानी हो मेरे, कन्थ चतुर दिल ज्ञानी । जो हम चहेनी सो तुम कहेनी, प्रीत अधिक पिछानी ।
कन्थ० ।। १ ॥
एक बूद को महल बनायो, तामे ज्योत समानी । दोय चोर दो चुगल महल में, बात कछु नहि छानी ।
कन्थ० ।। २ ।।
पाँच अरु तीन त्रियाजी मन्दिर में, राज्य करे राजधानी। . एक त्रिया सब जग वश कीनी, ज्ञानखड्ग वश पानी।
कन्थ० ।। ३ ।।