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श्री आनन्दघन पदावली-२७७ चार पुरुषं मन्दिर में भूखे, कबहु त्रिपत न पानी। दश असली एक असली बूजे, बूजे ब्रह्मज्ञानी ।
कन्थ० ।। ४ ॥ चार गति में रुलता बीते, कर्म को किणहु न जाणी। प्रानन्दघन इस पद कुबूजे, बूजे भविक जन प्राणी ।
कन्थ० ।। ५ ।।
इस पद में योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने अध्यात्म रस का प्रवाह बहाया है। चतुर कन्त को सम्बोधित करके उन्होंने अध्यात्मज्ञान की गूढ़ बातें बताई हैं।
(४५)
(प्रभाती आसावरी) रातडी रमीने अहियां थी प्राविया ।। ए देशी ।। मूलडो थोडो भाई व्याजडो घणो रे, केम करी दोधो रे जाय?। तलपद पूजी में प्रापी सघली रे, तोहे ब्याज पूरु नवि थाय ।
मूलडो० ॥ १ ॥ व्यापार भागो जलवट थलवटे रे, धोरे नहीं निसानी माय । व्याज छोडावी कोई खंदा (कांधा) परठवे रे,
.. . तो मूल प्रापु सम खाय ।। मूलडो० ।। २ ।। हाटडु मांडुरूडा माणक चोकमां रे, साजनीयांनु मनडुमनाय । प्रानन्दघन प्रभु शेठ शिरोमणि रे, बांहडी झालजो रे प्राय ।
मूलडो० ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज कहते हैं कि कर्म की कैसी विचित्र गति है ! मूल पाठ कर्म हैं और उनकी एक सौ अठावन प्रकृतियाँ हैं। एक बार किये गये पाप का दस गुना विपाक होता है, अतः कर्म के विपाकोदय के समय यदि उपयोग नहीं रखा जाये तो अन्य कर्मों का बन्ध हो जाता है और इस प्रकार कर्मों की