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योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७८
परम्परा में वृद्धि होती है। मूल कर्म अल्प होते हैं और उनकी परम्परा रूप ब्याज कर्म अधिक होते हैं। मूलकर्म विपाकोदय में आते हैं और उन्हें भोग कर मूलकर्म चुकाने से पूर्व तो उनका ब्याज रूप परम्परा कर्म बहुत बढ़ जाता है। अब कर्म रूपी ऋण मैं कैसे चुका सकता हूँ। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार समस्त सम्पत्ति दे दी तो भी परम्परा कर्म वृद्धि रूप ब्याज चुकता नहीं हो रहा है। कर्म का विपाकोदय भोगते समय प्रात्मा छटपटाती है जिससे नये कर्म बँधते हैं ।। १ ।। - अर्थ-भावार्थ-विवेचन- योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि प्रमत्त आदि दशा के कारण और पूर्व भव में किये हुए कर्मों के उदय से धर्म का व्यापार टूट गया। श्रुत एवं चारित्र धर्म थल-मार्ग एवं जल-मार्ग के व्यापार के समान हैं। श्रत एवं चारित्र के बिना धर्म रूपी धन की वृद्धि नहीं होती। धर्म रूपी धन की वृद्धि के लिए आगमों रूपी श्रुत का अध्ययन करना चाहिए तथा जिनेश्वर-कथित चारित्र ग्रहण करना चाहिए। श्रुतधर्म और चारित्र धर्म में प्रमाद करने से दो मार्गों का व्यापार टूट जाता है और निर्धनता आ जाती है। प्रामाणिकता की निशानी माँग कर व्यापार करने के लिए ऋण दिया जाता है । कोई सद्गुरु कर्म-परम्परा की वृद्धि रूपी ब्याज छुड़वाकर कर्म के कांधे दे अर्थात् कोई मुनिवर कृपा करके ऐसा बोध दे जिससे पूर्व कर्म भोगने के पश्चात् नवीन परम्परा वृद्धि रूपी ब्याज से मुझे मुक्ति मिले । यदि पूर्वकृत कर्म के विपाकोदय को भोगते समय नवीन कर्म नहीं बँधे, ऐसी दशा करा सके तो मैं प्रणपूर्वक कहता हूँ कि समस्त कर्मों को भोग कर कर्म का ऋण सर्वथा चुका दूगा ॥२॥
अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि इस प्रकार कोई मुनिवर कर्म के कांधे कर दे और ब्याज छुड़वा दे तो मैं विवेकरूपी माणेकचौक में धर्म की महान् दुकान प्रारम्भ कर दूं और क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (निर्लोभ), तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचनता एवं ब्रह्मचर्य रूप स्वजनों का मन मनाकर अपना व्यवसाय प्रारम्भ करूं। श्रीमद् आनन्दघन जी ने दीक्षा अंगीकार की थी, अतः