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श्री आनन्दघन पदावली-२७६
वे कहते हैं कि चारित्र में विशेष स्थिर बनूं और सिद्धान्तों का विशेष अध्ययन करूं; प्रमाद दशा टाल कर अप्रमत्त गुणस्थान में रहूँ; ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की सम्यक् प्रकार से आराधना करूँ; नवीन कर्म नहीं बाँधू और पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा करूं तथा वैराग्य भावना के द्वारा समस्त गुणों की पुष्टि करूं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि समस्त प्रकार के धर्म में श्रेष्ठ-शिरोमणि हे तीर्थंकर परमेश्वर ! आप आकर मेरी भुजा पकड़ो अर्थात् मेरी धर्म-व्यापार में सहायता करो और मुझे क्षायिक धर्मऋद्धि से भरपूर आपके समान बनायो । प्रभो ! मैं आपका आलम्बन लेता हूँ ।। ३ ।।
(४६ ) चेतन पापा कैसे लहोई, चेतन । सत्ता एक अखंड अबाधित, इह सिद्धान्त परख जोइ । .
चेतन० ।। १ ।। अन्वय अरु व्यतिरेक हेलु को, समज रूप भ्रम खोई । आरोपित सर्वधर्म और है, आनन्दघन तत सोइ ।
चेतन० ।। २ ॥
अर्थ-भावार्थ-विवेचन–अपने आत्मस्वरूप को कैसे पाया जा सकता है ? चेतन प्रश्न करके कहता है कि प्रात्मा को आत्मा के रूप में अनुभव किये बिना आत्म-तत्त्व की प्रतीति नहीं होती। अतः आत्मा की सत्ता एक है, आत्मा अखण्ड है, आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। आत्मा के एक प्रदेश का भी कदापि नाश नहीं हुआ और न होगा। आत्मा की सत्ता कदापि खण्डित नहीं होती। आत्मा की चैतन्य धर्म की सत्ता का कदापि नाश नहीं होता। इस प्रकार सिद्धान्तों के पक्ष से आत्मा का सत्ता में रहा हुआ स्वरूप जानना चाहिए। कर्मग्रन्थ, तत्त्वार्थ-सूत्र, विशेषावश्यक, प्राचारांग और भगवती सूत्र आदि सिद्धान्तों से आत्मा का सम्यक् स्वरूप जाना जा सकता है ।। १ ।।