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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८० अर्थ-भावार्थ-विवेचन-जिसके सत्त्व से जिसका सत्त्व हो उसे अन्वय हेतु समझ और जिसके प्रभाव से जिसका प्रभाव हो उसे व्यतिरेक हेतु कहा जाता है। आत्मा का अस्तित्व होने पर ही ज्ञान का अस्तित्व है। जहाँ आत्मा नहीं है वहाँ ज्ञान नहीं है-जैसे जड़ वस्तुएँ। इस प्रकार प्रात्मा की सिद्धि अन्वय और व्यतिरेक से होती है। आत्मा है, आत्मा कर्म का कर्ता है और कर्म का भोक्ता है तथा आत्मा कर्म का संहर्ता है। आत्मा से कर्म छूटते हैं अतः मोक्ष है और मोक्ष के उपाय हैं। इन छः तथ्यों पर विशेष चिन्तन करके आत्मा के स्वरूप का ध्यान करने से आत्मा का अनुभव आता है। प्रात्मा का ज्ञान होने पर बहिरात्म बुद्धि का नाश होता है और अन्तरात्मत्व प्रकट होता है; बाह्यदशा का भ्रम दूर होता है और अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए सतत इच्छा प्रकट होती है और आत्मा अपने भीतर परमात्मपने की सत्ता को देखता है ।। २ ॥ . .
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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