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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २७४
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इस कारण ही उन्होंने
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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी के मन में परमात्मा की प्राप्ति की अनन्य उत्कण्ठा प्रकट हुई थी और उन्होंने निराकार प्रभु का ध्यान करने की अमुक योग्यता प्राप्त कर ली थी निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट किये थे पृथ्वी में समाधि लेने वाले हठयोगियों का उन्होंने खण्डन किया है । ' पृथ्वी में गलकर मैं निराकार परमात्मा को पहचान नहीं सकता।' उन्होंने पंचाग्नि तप को भी अज्ञानमय कष्ट बताया है क्योंकि अग्नि में देह जलने से कोई कर्म नहीं जल जाते । वे मानते हैं कि साकार वस्तु में निराकार परमात्मा का आरोप करके निरंजन की भक्ति करने से निरंजन की प्राप्ति होती है ।
योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी ने निरंजन सिद्ध परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधित किया है । उनमें सिद्ध परमात्मा से मित्रता करने की योग्यता थी । इसी कारण से उनके अन्तर में से निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट हुए हैं ।
( ४२ ) (राग - श्रासावरी )
हमारे, काया चलो संग हमारे ।
अब चलो संग तो बहोत यत्नकरी राखी, काया अब चलो संग हमारे ।। १ ।।
झूठ अपारे ।
तोये कारण मैं जीव संहारे, बोले चोरी करी पर-नारी सेवी, जूंठ
धारे ।
काया० ।। २ ॥
पर आभूषण सुंघा चुना अशनपान फेर दिने खट रस तोये सुन्दर, ते सब
परिग्रह
नित्य न्यारे ।
मल कर डारे ।
जीव सुगो या रीत अनादि, कहा कहत मैंन चलूंगी तोये संग चेतन, पाप-पुण्य
काया० ।। ३ ।।
बारंबारे । दोय लारे |
जिनवर नाम सार मज आतम, कहा मरम सुगुरु वचन प्रतीत भये तब, आनन्दघन
काया० ।। ४॥
संसारे ।
उपगारे |
काया० ।। ५ ।