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श्री श्रानन्दघन पदावली - २७३
( ४१ )
निरंजन यार मोय कैसे मिलेंगे ?
दूर देखूं मैं दरिया डूंगर ऊँची बादर नीचे जमीं युं तले । निरं० ॥ १ ॥
धरती में घडुता न पिछानु, अग्नि सहु तो मेरी देही जले । निरं० ।। २ ।।
आनन्दघन कहे जस सुनो बातां, ये ही मिले तो मेरो फेरो टले । निरं० ॥ ३ ॥
अर्थ- भावार्थ - विवेचन—- योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी और उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय जी दोनों का मिलाप हुआ । उपाध्याय जी को योगिराज के प्रति पूज्य भाव था । श्रीमद् श्रानन्दघन जी भी उपाध्याय जी को गीतार्थ धर्म-रक्षक मानते थे । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि कर्म रूप अंजन से रहित - परमात्मा स्वरूप शुद्ध मित्र से मेरा मिलाप कब होगा ? निरंजन निराकार प्रभु की प्राप्ति मुझे कैसे होगी ? यदि मैं दूर देखता हूँ तो समुद्र और पर्वत दृष्टिगोचर होते हैं और यदि आकाश में ऊपर देखता हूँ तो बादल दिखाई देते हैं, नीचे भू-तल दिखाई देता है परन्तु निरंजन परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती । अरूपी परमात्म स्वरूप का मिलाप नहीं हो रहा ।
यदि मैं पृथ्वी में प्रविष्ट करके देखता हूँ तो वहाँ भी निरंजन परमात्मा दृष्टिगोचर नहीं होते । यदि मैं पंचाग्नि की साधना करता हूँ तो मेरी देह जलती है । मैं अनेक कष्ट सहन करता हूँ तो भी निरंजन यार का मिलाप नहीं होता । अतः अब मैं क्या उपाय करूँ ताकि निरंजन परमात्मा मित्र की प्राप्ति हो ? श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि हे यशोविजय जी उपाध्याय ! निरंजन यार से मिलाप हो तो ही मेरा भव - भ्रमरण का फेरा टल सकता है। निरंजन यार मिले बिना चार गति रूपी परिभ्रमण टलने वाला नहीं है । आत्मा रूपी निरंजन की प्राप्ति होना कोई सामान्य बात नहीं है । सब वस्तु की प्राप्ति की जा सकती है, परन्तु निरंजन परमात्म पद की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है । इसके लिए तो अनुभवज्ञान की आवश्यकता है ।