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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७२
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(राग-वेलावल) मेरे ए प्रभु चाहिये, नित्य दरिसन पाउ । चरण कमल सेवा करू, चरणे चित्त लाउ ।। मेरे० ।। १ ।। मन पंकज के मोल में, प्रभु पास बेठाउ। . निपट नजीक हो रहुं, मेरे जीव रमाउ ।। मेरे० ।। २ ।। अंतरजामी पागले, अंतरिक गुण गाउ । ' आनन्दघन प्रभु पास जो मैं तो और न ध्याउ ।। मेरे० ।। ३ ।।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे प्रभो! मेरी यही चाह है कि मैं नित्य आपके दर्शन पाऊँ। मेरो यही अभिलाषा होती है कि नित्य आपके चरण-कमलों की सेवा करूँ और आपके चरणों में मैं अपना चित्त रखू। हे पार्श्वनाथ प्रभो ! मन पङ्कज के महल में आपको बिठाऊँ और नित्य आपके आत्मा के समीप रहूँ और अपने जी को मैं वहाँ खिलाऊँ। मेरे अन्तर्यामी !
आपके समक्ष मैं आपके आन्तरिक गुण गाता हूँ, उनका स्मरण करता हँ और तन्मय होता है। श्रीमद् कहते हैं कि हे पार्श्व प्रभो! आप जैसे सर्वज्ञ वीतराग को पाकर मैं अन्य देवों का कदापि ध्यान करने वाला नहीं हूँ।
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी भगवान श्री पार्श्वनाथ की इस प्रकार स्तुति करके अपने अन्तर में अपूर्व ज्ञान-भक्ति रस जाग्रत होने का अनुभव करते हैं। भक्ति-रस के रसिक योगिराज अपने अन्तर में पार्श्व प्रभु को स्थापित करते हैं और वे पार्श्व प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुदेव का ध्यान नहीं करने का प्रण करते हैं। वे परमात्मा के पालम्बन से अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं। परमात्मा की नवधा भक्ति करने से भक्त स्वयं परमात्मा रूप बन जाता है। कलियुग में भक्ति-योग का महान् पालम्बन है।
योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ज्ञानयोगी एवं भक्ति-योगी थे। उनकी आत्मा अत्यन्त उज्ज्वल थी जिससे परमात्मा की स्तुति में तन्मय होकर वे बाह्य जगत् का ध्यान भूल जाते थे ।