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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- १६० विचार । अवतार ॥ निसारणी ० ।। २ ।। ५ सिद्ध सरूपी जो कहूँ रे, बन्धन न घटे संसारी दसा प्यारे, पाप, सिद्ध सनातन जो कहूँ रे, उपजइ उपजइ विगसइ जो कहूँ प्यारे, नित्य मोख पुण्य विरणसइ कौन । अबाधित गौन || सरवंगी सब नये धरणी रे, माने नयवादी पल्लो गहे ( प्यारे ), करइ निसारणी ० ।। ३ ।। सब परवान । लराइ ठान । निसारणी ० ।। ४ । अनुभव - गोचर वस्तु कोरे, जाणिवो, इह इलाज । कहण सुरगण कु कछु नहीं प्यारे, प्रानन्दघन महाराज । निसाणी ० ।। ५ । अर्थ --चेतन आत्मा के स्वरूप की मीमांसा करते हुए योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि चेतन की क्या पहचान बताऊँ ? उसका स्वरूप तो वचनातीत है । वाणी के द्वारा उसके रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता । यदि उसे रूपी कहता हूँ तो वह कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता और यदि उसे अरूपी ( निराकार ) कहता हूँ तो अरूपी कर्मों के बन्धन में कैसे बँध सकता है ? यदि उसे रूपी - अरूपी, साकार - निराकार उभय रूप कहता हूँ तो सिद्ध भगवान का वह स्वरूप नहीं है अर्थात् अनुपम सिद्ध भगवान के लक्षणों का उससे मेल नहीं बैठता है क्योंकि सिद्धों के कोई रूप नहीं हैं ॥ १ ॥ विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघन जी महाराज ने कहा है कि हे आत्मन् ! मेरे पास पूछताछ करने वाले जिज्ञासु प्राये तो मैं उन्हें तेरी क्या निशानी बताऊँ ? क्योंकि तेरा स्वरूप अगोचर है । मैं लोगों को तेरे क्या लक्षण बताऊँ ? जड़वादी लोग देह, रक्त एवं साँस आदि रूपी पदार्थों को आत्मा मानते हैं, उसका संयोग टलता है, उसे प्रात्मा का नाश मानते हैं । भूतवादी लोग पंचभूतों से भिन्न प्रात्मा को नहीं मानते । पंचभूतों के संयोग से आत्मा उत्पन्न होती है और पंचभूत का संयोग टलने पर रूपी आत्मा का नाश होता है । ऐसे रूपी आत्मा को मानो
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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