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श्री आनन्दघन पदावली-१६१
अथवा मत मानो-यह समान है। ऐसे आत्मा को मानने से क्या ? अनादिकाल से केवल शुद्ध, अरूपी अात्मा है, बन्ध एवं मुक्ति की तो केवल कल्पना है। आत्मा का बन्ध भी नहीं है और मोक्ष भी नहीं हैयह कतिपय अद्वैतवादी मानते हैं परन्तु वैसी आत्मा मानने से वह कर्म से नहीं बंधती और कर्म से बँधे बिना जन्म, मृत्यु आदि नहीं हो सकते । कर्म का सम्बन्ध तो है, परन्तु अनादिकाल से शुद्ध आत्मा मानने से कर्म की बन्ध-व्यवस्था नहीं होती। इस प्रकार का विरोधाभास रहता है।
अर्थ –यदि चेतन को सिद्ध स्वरूपी एवं वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रहित कहता हूँ तो फिर बंध और मोक्ष का विचार ही नहीं हो सकता, क्योंकि जो सदा शुद्ध है वही बन्धन में पड़े तो मुक्त जीव भी बन्धन में पड़ेंगे, फिर किसी आत्मा के लिए मुक्त शब्द चरितार्थ ही नहीं होगा और सिद्धस्वरूपी कहने से सांसारिक दशा भव-भ्रमण सिद्ध नहीं होता तथा पुण्य कर्म के अनुसार मनुष्य और देव रूप में जन्म लेना तथा पाप के फलस्वरूप नरक, तिर्यंच में जन्म लेना सिद्ध नहीं होता ॥ २ ॥
विवेचन -नियम ऐसा है कि अनादि से शुद्ध प्रात्मा हो तो वह बन्धन में नहीं पड़ती। जो बन्धन में नहीं पड़ता उसका मोक्ष कैसे कहा जा सकता है ? योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि हे आत्मन् ! मैं तुम्हें पहचानने की निशानी कैसे बता सकता हूँ? कतिपय वादी आत्मा को शुद्ध सनातन मानते हैं। उनके मतानुसार सोचने पर उनमें पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, जरा, मृत्यु, पाँच प्रकार के शरीर, स्वर्ग एवं नरक आदि सांसारिक दशा की सिद्धि नहीं होती। शुद्ध सनातन आत्मा हो तो भगवान की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है ? शुद्ध सनातन आत्मा मानने वालों को तप, जप, संयम, तीर्थयात्रा एवं देवपूजा आदि क्यों करने चाहिए। शुद्ध सनातन-वादियों को संन्यासी क्यों बनना चाहिए? - अर्थ -यदि चेतन को अनादिकाल से सिद्ध कहता हूँ तो उत्पन्न होने वाला और विनष्ट होने वाला कौन है ? यदि उसे उत्पन्न होने वाला और विनाश होने वाला कहता हूँ तो उसके नित्यत्व एवं अबाधितत्व का लोप हो जाता है ।। ३ ॥ ... विवेचन -आत्मा में उत्पाद एवं व्यय होता है। चौरासी लाख योनियों में प्रात्मा कर्म के योग से जन्म, जरा, मृत्यु को प्राप्त होती है, अमुक गति में उत्पन्न होती है और अमुक गति में से च्यव कर पाती है । आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध मानने से उत्पाद एवं च्यवन की सिद्धि