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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६२
होती है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा को सिद्ध सनातन मानने से कर्मयोग से आत्मा को उत्पाद-व्यय की दशा होती है जो नहीं होनी चाहिए आदि बातों का विरोध आये उसके लिए एकान्त प्रथम से (अनादिकाल से) आत्मा को सिद्ध (अष्टकर्म रहित) सनातन नहीं माना जा सकता।
अर्थ-चेतन सर्वाङ्गी रूप है, समस्त नयों का स्वामी है। जो इसे प्रमाण ज्ञान द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं वे इसके स्वरूप को समझ सकते हैं अर्थात् अनेकान्त दृष्टियों से चेतन का स्वरूप समझा जा सकता है, किन्तु नयवादी एक ही दृष्टिकोण को अपनाकर विवाद करते रहते हैं ।। ४ ।।
विवेचन–श्रीमद् आनन्दघनजी अनेकान्त नय के द्वारा आत्मा का लक्षण सोचकर तदनुसार आत्म-तत्त्व का निर्धारण करके कहते हैं कि पूर्वोक्त प्रात्मा के लक्षण बाँधे, वे अमुक-अमुक नय की अपेक्षा से विरोधी लक्षण प्रतीत हुए, परन्तु समस्त अंगों को अपेक्षा से स्वीकार करने वाले नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-इन सात नयों का स्वामी, आत्मा के समस्त लक्षणों को उस-उस नय की अपेक्षा से कर्मसम्बन्ध से प्रमाण मानता है। नैगम नय की अपेक्षा से तथा व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा रूपी भी कहलाता है। निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा अरूपी कहलाता है। संग्रह नय की अपेक्षा से शुद्ध सनातन आत्मा कहलाता है और शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से सिद्ध सनातन भी कहलाता है। द्रध्यार्थिक नय की अपेक्षा प्रात्मा नित्य है और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उत्पाद एवं व्यय होने के कारण आत्मा अनित्य भी है। ऋजुनय की अपेक्षा आत्मा क्षणिक कहा जाता है, संग्रह नय की अपेक्षा आत्मा एक कहलाता है और व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा अनेक कहलाता है तथा एवंभूत नय की अपेक्षा आत्मा सिद्ध-बुद्ध है।
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(राग-गौड़ी) विचारी कहा विचारइ रे, तेरो आगम अगम अपार । बिनु अाधार प्राधेय नहीं रे, बिनु प्राधेय प्राधार । मुरगी बिना इंडा नहीं प्यारे, वा बिनु मुरग की नार ।।
विचारी० ।। १ ॥