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श्री आनन्दघन पदावली - १६३
भुरट बीज बिना नहीं रे, बीज न भुरटा टार । निस बिनु द्यौस घटइ नहीं प्यारे, दिन बिनु निस निरधार । विचारी० ।। २ ।।
सिद्ध संसारी बिनु नहीं रे, सिद्ध न बिनु संसार | करता बिनु करणी नहीं प्यारे, बिनु करणी करतार || विचारी० ॥ ३ ॥
जामरण मरण बिना नहीं रे, मरण न जनम विनास । दीपक बिनु परकास के प्यारे, बिन दीपक परकास || विचारी० ।। ४ ।
आनन्दघन प्रभु वचन की रे, परिणति धरि रुचिवंत । सास्वत भाव विचारते प्यारे, खेलो अनादि अनन्त ॥ विचारी० ।। ५ ।
अर्थ - हे आत्मन् ! विचारक कहाँ तक विचार करें। तेरा आगम ( शास्त्र ) तो अगम्य है, अपार है । बिना सहारे के बिना आधार के आधेय वस्तु कैसे टिक सकती है और बिना आधेय के आधार किसका ? द्रव्य रूप आधार के बिना गुणपर्याय रूप आधेय कैसे सम्भव है तथा गुण पर्याय के आधेय के बिना द्रव्य रूप आधार कैसे सम्भव है ? इसी प्रकार से मुर्गी के बिना अण्डा नहीं होता और अण्डे के बिना मुर्गी नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि मुर्गी नहीं होगी तो अण्डा कहाँ से आयेगा और अण्डा नहीं होगा तो मुर्गी कहाँ से उत्पन्न होगी ? ।। १ ।।
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे प्रभो ! विरले . ज्ञानी ही आपके ग्रागमों का सार ग्रहरण कर सकते हैं । आपके आगम रूपी सागर का कोई पार नहीं है । अनादिकाल से आधेय एवं आधार साथ-साथ हैं । षड्द्रव्यरूप जगत् अनादि काल से है । द्रव्य रूप अधिकरण के बिना पर्याय रूप आधेय नहीं है । अण्डे और मुर्गी दोनों का प्रवाह अनादि काल से है । इनमें कोई पहला और पश्चात् है ही नहीं ।
अर्थ - पौधों के बिना बीज नहीं होता और बीज के बिना पौधा नहीं होता। रात्रि के बिना दिन का निश्चय नहीं होता और दिन के