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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १६४
बिना रात्रि का निर्णय नहीं हो पाता ; अर्थात् नित्य दिन ही बना रहे तो रात्रि का निर्णय कैसे होगा ? ।। २ ।।
विवेचन - इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि नहीं होती और निश्चय के बिना व्यवहार की सिद्धि नहीं होती । रस के बिना जीभ की सिद्धि नहीं होती और जीभ के बिना रस की सिद्धि नहीं होती । शुभ के बिना अशुभ की तथा अशुभ के बिना शुभ की सिद्धि नहीं होती और बन्ध के बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं है तथा मोक्ष की सिद्धि हुए बिना बन्ध की सिद्धि घटित नहीं होती । इस प्रकार अनादि काल से दोनों का सहवर्तित्व मानने से समस्त विरोध टल जाता है और यथातथ्य रूप में सत्य सिद्धान्त प्रकाशित होता है ।
अर्थ - संसारी के बिना सिद्ध नहीं हो सकते अर्थात् संसार के कारण ही मोक्ष की सिद्धि है । सिद्ध के बिना संसार की सम्भावना कैसे होगी ? संसारी जीव ही सिद्ध बनते हैं । कर्त्ता के बिना क्रिया नहीं होती । जहाँ क्रिया है वहाँ उसका कर्त्ता अवश्य होगा ।। ३ ।।
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी ने अन्य दृष्टान्त देकर बताया है संसारी जीवों के बिना सिद्ध नहीं और सिद्धों के बिना संसारी जीव सिद्ध नहीं बनते । संसार एवं सिद्ध दोनों अनादिकाल से सहवर्तमान हैं । देवता, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों का संसार में समावेश होता है । ईश्वर और जगत् दोनों अनादिकाल से हैं । ईश्वर जगत् का कर्त्ता नहीं है तथा जगत् ईश्वर को बना नहीं सकता । राग, द्वेष एवं इच्छा आदि से रहित ईश्वर है । उसको जगत् एवं सिद्ध स्थान बनाने का कोई प्रयोजन नहीं है ।
अर्थ - श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है ि मृत्यु के बिना जन्म की सम्भावना नहीं है और जन्म के बिना मृत्यु नहीं होती । प्रकाश दीपक के बिना नहीं होता और दीपक प्रकाश के बिना नहीं होता । प्रकाश से दीपक का होना निश्चित है तो दीपक से प्रकाश होना निश्चित है ॥ ४॥
विवेचन - चौरासी लाख जीव-योनि में आत्मा कर्म के योग से जन्म-मरण करती रहती है । आयुष्य क्षय होने पर एक गति में से अन्य गति में जाते समय तैजस एवं कार्मरण - दो शरीर साथ लेकर आत्मा जाती है । अष्ट कर्मों के विकार से कार्मण शरीर बनता है । पाप-पुण्य आदि