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श्री आनन्दघन पदावली-१६५
समस्त कर्मों को जीव परभव में ले जाता है और पाप-पुण्य के अनुसार अशुभ एवं शुभ शरीर दुःख एवं सुख आदि प्राप्त करता है और पुनः आयुष्य का क्षय होने पर मृत्यु होती है। अतः जन्म एवं मृत्यु दोनों अनादि काल से सहवर्तमान हैं। इसी प्रकार दीपक एवं प्रकाश दोनों साथ-साथ हैं।
अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि जानने की रुचि वाले आनन्द के समूह प्रभु सर्वज्ञ के वचनों की परिणति को धारण करके शाश्वत भाव पर विचार करें तो उन्हें यह खेल अनादि एवं अनन्त प्रतीत होगा। जड़ एवं चेतन दोनों शाश्वत हैं। इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है और अनन्त काल तक रहेगा। सर्वज्ञ परमात्मा की इस वाणी पर श्रद्धा रखो ॥५॥
- विवेचनभगवान के आगमों में समस्त पदार्थों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रभु की वाणी में विश्वास रखकर जो मनुष्य अपनी आत्मा में रमण करते हैं वे अल्प समय में मुक्ति प्राप्त करते हैं। प्रभु के आगमों के प्रति रुचि होने पर प्रभु के प्रति प्रेम होता है जिससे प्रात्मा प्रभु के सद्गुण ग्रहण करने में समर्थ बनती है। प्रभु का पालम्बन पाकर आत्मा सालम्बन ध्यान में लीन हो जाती है और जिनागमों में कथित अनादि प्रवाह-प्रचलित शाश्वत भावों का विचार कर सकती है। आधार एवं आधेय, द्रव्य एवं पर्याय, शाश्वत हैं। पंच द्रव्य शाश्वत हैं, नौ तत्त्व शाश्वत हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से लोक शाश्वत है। बीज एवं अंकुर का प्रवाह शाश्वत है। रात्रि एवं दिन का अनादि प्रवाह, सिद्ध एवं संसार, कर्ता एवं क्रिया, जन्म एवं मृत्यु तथा दीपक एवं प्रकाश अनादि काल से शाश्वत हैं। इसी कारण योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी महाराज कहते हैं कि प्रभु द्वारा उपदिष्ट शाश्वत भावों का विचार करके हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का विवेक करो और अनादि अनन्त आत्मा में तन्मय बनो।
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( राग-प्रासावरी ) साधु संगति बिनु कैसे पइये, परम महारस धाम री। कोटि उपाव करे जो बौरा, अनुभव कथा विराम री ।।
साधु० ॥ १ ॥