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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५६ रहती है। अनुभव-रस प्राप्त होने पर मन अस्वस्थ नहीं रहता। अनुभव-रस का पान करने से आत्मा का स्वरूप भिन्न प्रकार का होता है। अनुभव-ज्ञानी अन्तर से रोग-शोक का अनुभव नहीं करता और वह लोगों के बोलने की ओर ध्यान नहीं देता। अनुभवी बाह्य दृष्टि बन्द करके अन्तई ष्टि से मोक्ष-मार्ग की अोर प्रयाण करता है। वह तो अपने स्थान के प्रति गुणस्थानक रूप भूमि को लाँघ कर प्रयाण करता है और कल्याणमय परमात्मा से साक्षात्कार करता है अर्थात् स्वयं परमात्मा बनता है। अर्थ-वर्षा की बूद जिस प्रकार समुद्र में समा जाती है, मिल जाती है और फिर किसी को यह पता नहीं लगता कि वह बूद कौनसी है ? वह समुद्ररूप हो जाती है। उसी प्रकार से अनुभव-ज्ञानी प्रानन्दसमूह की ज्योति में समा जाते हैं, सिद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। अतः अलख (अलक्ष्य) हो जाते हैं। समुद्र में वर्षा की बूंद की खोज नहीं हो सकती है क्योंकि वह समुद्रमय बन जाती है। उसी प्रकार से चेतन विशाल आनन्दसागर बन जाता है ।। ४ ।। विवेचन---अनुभव-ज्ञान के बिना अलक्ष्य आत्मा का स्वरूप प्रतीति-गोचर नहीं होता। आत्मा की ज्योति आत्मा से पृथक नहीं है। आत्मा एवं आत्म-ज्योति दोनों एकरसरूप बनकर रहते हैं, जिसे कोई विरले अनुभवी ही जानते हैं। अनुभवज्ञान की ज्योति आत्मा में समा जाती है। अनुभवी अपने अनुभवज्ञान को अन्य व्यक्तियों को बता नहीं पाता। केवल किसी वस्तु को पढ़ने-सुनने से कोई ज्ञानी नहीं बन जाता। उन-उन वस्तुओं के स्वरूप का अनुभव करना चाहिए। प्रात्म-तत्त्व का अनुभव प्राप्त करना चाहिए। आत्म-अनुभव-कलिका जाग्रत होने पर अपने स्वरूप की रमणता खिलती है और मन आत्मसमाधि में लीन रहता है। (६० ) (राग-गौड़ी) निसाणी कहा बतावू रे, वचन अगोचर रूप । रूपी कहूँ तो कछु नहीं रे, वधइ कइसइ अरूप । . रूपारूपी जो कहु प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । निसाणी० ॥ १॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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