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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५८ फन्दे में फंसा दिया था जिससे मेरी शुद्ध बुद्धि नष्ट हो गई थी। अब मैं सुमति के प्रताप से जाग्रत हो गया हूँ। __ अर्थ-यह सम्पूर्ण संसार जन्म, जरा, मृत्यु के वशीभूत है, अतः अशरण है, अर्थात् संसार में सब पर इनका प्रभाव है, किन्तु अनुभव ज्ञान रूपी कलिका के विकसित होने से जन्म, जरा, मृत्यु का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं है। मुझे तनिक भी भय नहीं है। मेरा इन पर न तो कोई ममत्व है और न ये मुझे तनिक भी अच्छे लगते हैं। अतः मैंने इनका परित्याग कर दिया है। विवेचन - संसार में जीव दुःखों में फंसे हैं। पामर जीव दु:खद पदार्थों को भी सुख के भ्रम में सुखद मानकर फंस जाते हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी ने मियांजी के बाग का दृष्टान्त देकर यह बात समझाई है। 'एक मियांजी बगीचे में निबौरी चुन रहे थे। वे मीठी तथा कड़वी निबौरी अलग-अलग वृक्षों की चुन रहे थे। किसी ने उनके घर . आकर मियांजी की बीबी से पूछा- मियां कहा गये हैं ? बीबी ने बताया—'वे बगीचे में गये हैं।' मियांजी के निबौरी चुनने की तरह जीव संसार में दुःख भोगते हैं फिर भी सुख का बहाना करते हैं। आत्मा कहती है कि मैंने भी अज्ञानवश मियाँ के बगीचे की तरह वेदनीय कर्म रूपी नीम की कडवी निबौरियाँ एकत्र की, परन्तु कटता के अतिरिक्त किसी अन्य स्वाद का अनुभव नहीं किया। हमें किसी भी पदार्थ पर ममता नहीं रखनी चाहिए। अब ज्ञात हो गया. कि संसाररूपी वृक्ष का मूल ममता है। ममता के नचाने पर सम्पूर्ण जगत् नाच रहा है। अब अशरणभूत संसार में किसी पर ममता रखना उचित नहीं है। अर्थ-अनुभव के रसास्वादन से शारीरिक रोग और मानसिक शोक नहीं रहते। शरीर रोगों का और मन शोक-सन्तापों का घर है। भेदज्ञानी दर्शक बनकर देह एवं मन का नाटक देखता है और अपने ज्ञानानन्द में मग्न रहता है। अनुभव ज्ञान होने पर निन्दा, स्तुति, लोकापवाद सब दूर हो जाते हैं। यहाँ अनुभव-ज्ञान में तो अचल अनादि, बाधारहित कल्याणकारी, मंगलदायक चैतन्य-शक्ति का साक्षात्कार रहता है ।। ३ ॥ विवेचन–अनुभव-कलिका जाग्रत होने से अनुभव-रस प्राप्त होता है, जिसका पान करने से आत्मानुभव होने के कारण मन पर राग-द्वेष का प्रभाव अल्प रहता है और मन स्वस्थ बना रहता है तथा देह नीरोग
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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