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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५७ ( ५६ ) (राग-प्रासावरी) अवधू ! अनुभव कलिका जागी , मति मेरी आतम सुमिरन लागी ।। जाइ न कबहु और ढिग नेरी, तोरी बनिता बेरी । माया चेरी कुटुम्ब करी हाथे, एक डेढ़ दिन घेरी ।। अवधू० ।। १ ।। जामन मरन जरा वसि सारी, असरन दुनियां जेती। दे ढवकाय न वा गमे मीयां, किस पर ममता एती ॥ अवधू० ।। २ ।। अनुभव रस में रोग न सोगा, लोकवाद सब मेटा । केवल अचल अनादि अबाधित, शिवशंकर का भेटा ॥ अवधू० ।। ३ ॥ वरषा बूद समुद संमाने,. खंबरि न पावे कोई । प्रानन्दघन ह्र जोति समावे, अलख लखावे सोई ।। अवधू० ॥ ४ ॥ अर्थ-श्रीमद आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अवध ! अब अनुभवज्ञानरूपी कली विकसित हो गई है। इस कारण मेरी मति प्रात्म-स्मरण में लग गई है। अब यह मति आत्म-भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु में, अन्य किसी भी भाव के निकट नहीं जाती। उसने विवशता का बन्धन तोड़कर माया दासी तथा उसके परिवार (लोभ आदि) को चारों ओर से एक-डेढ़ दिन का घेरा डालकर अपने हाथ में कर लिया है। अब ये माया, लोभ आदि कुछ बिगाड़ नहीं कर सकते ॥ १॥ - विवेचन - मेरी मति सचेत हो गई है, जान गई है कि क्रोध आदि शत्रु मेरे हितैषी नहीं हैं। सुमति ने माया दासी के सम्पूर्ण परिवार को वश में कर लिया है जिससे राग-द्वेष आदि शत्रुओं का जोर घट गया है। चेतन कहता है कि माया ने मुझे चौरासी लाख योनियों में भटकाकर मेरा समस्त धन पचा लिया था और मुझे मोह के
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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