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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य -१५६
भट्टी में प्रौटाकर जो उस मसाले का सत्त्व पी लेते हैं, उनमें अनुभव ज्ञान रूपी लालिमा प्रकट हो जाती है ।। ३ ।।
विवेचन इस पद में श्रीमद् श्रानन्दघनजी योगिराज ने रूपक के द्वारा आत्म शुद्धि की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है । ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मा शुद्ध, शुद्धतर और अन्त में शुद्धतम अवस्था को प्राप्त हो जाती है । अन्तिम अवस्था में पहुँचने पर उसे ज्ञान रूपी लालिमा अर्थात् प्रकाश प्राप्त हो जाता है ।
अर्थ – योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि उपर्युक्तं सत्त्व से भरा हुआ प्याला अगम्य है । उसकी विशेषताएँ प्रत्येक व्यक्ति की समझ से परे हैं । उसे तो वे ही पहचानते हैं जो अध्यात्म में निवास करने वाले हैं । अर्थात् जो बहिर्भाव में नहीं रहते और आत्मभाव में रमण करते हैं वे ही उसे पहचानते हैं । ऐसे ही मनुष्य इस प्याले का आस्वादन कर मग्न हो जाते हैं । अतः इस रस के रसिको ! आत्मोद्धार के पथिको ! इसका आस्वादन करो, इसे पियो । जिसने इस रस का आस्वादन कर लिया वह अबाधित आनन्द समूह चेतन बनकर चौदह राजलोक का तमाशा देखता है अर्थात् लोक में हुईं, हो रही और होने वाली घटनाओं को देखता है । इस प्रकार वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाता है ॥ ४ ॥
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि उस आगम अनुभव प्रेम रस के प्याले को पी जाओ । हे चेतन ! अध्यात्म ज्ञान के द्वारा अगम अनुभव प्याले का स्वरूप जानकर उस प्रेमरस प्याले को तू पीजा जिससे आनन्द का समूहभूत चेतन अपने स्वरूप में खेलेगा और अनुभव प्रेमरस को खुमारी इतनी अधिक चढ़ जायेगी जो आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त हो जायेगी, जिसके प्रताप से दिव्यज्ञान- शक्ति खिल उठेगी जिससे लोक में निहित समस्त पदार्थों का नाटक दिखाई देगा । अध्यात्मयोगी ऐसा उत्तम प्याला पीने में समर्थ होते हैं । ऐसा प्याला पीते समय किसी की स्पृहा नहीं रहती । सेठ, राजा, चक्रवर्ती तथा इन्द्रों की भी परवाह नहीं रहती । अनुभव रस का प्याला पीने वाले संसार के समस्त तमाशे देखते हैं और अपने स्वरूप के आनन्द में तन्मय रहते हैं । वे देह होते हुए भी मुक्ति के सुख का अनुभव करते हैं । उक्त प्याला पीने के पश्चात् चेतन भिन्न प्रकार से खेल कर जगत् को तमाशे के रूप में देखता है ।