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श्री आनन्दघन पदावली-१५५
रूपी अमृत रस का आस्वादन करो। इस अमृत रस से शाश्वत सुख एवं शान्ति की प्राप्ति होती है ।
जो मनुष्य पौद्गलिक सुखों की आशा के पीछे पड़ते हैं, वे उस श्वान के समान हैं जो जूठे टुकड़ों की प्राप्ति की आशा में लोगों के द्वारद्वार पर भटकता है। पौद्गलिक सुखों की आशा में भटकने से वे सुख प्राप्त हो भी जायें तो वह दुराशा मात्र है। अत: उन झूठे सुखों की आशा त्याग कर आत्मानुभव के रस के रसिक-जन उस आत्मानुभव (ज्ञानामृत) रस को पीकर इतने मग्न हो जाते हैं कि उनकी खुमारी, उनका नशा कभी दूर होता ही नहीं है। वे नित्य आत्मानन्द में डूबे हुए ही रहते हैं ।। १ ।।
विवेचन - संसार में जीवन में रस पैदा करने वाली आशा ही है। वह भविष्य के नये-नये स्वप्न संजोती रहती है। प्राशा-तृष्णा ही संसार है। अतः आत्मोत्थान चाहने वालों को आशा का परित्याग कर भवभ्रमण घटाना चाहिए। जो मनुष्य संसार को, भव-भ्रमण को घटाना चाहते हैं, उन्हें आशारहित होकर अनित्य, अशरण आदि भावनाएँ अपनानी चाहिए। ये भावनाएँ आशानों पर अंकुश का कार्य करती हैं.।
... ' . अर्थ-आशा दासी की जो सन्तानें हैं, वे संसार की दास हैं, गुलाम हैं, क्योंकि दासी के पुत्र तो दास ही होंगे, किन्तु जिन्होंने आशा को अपनी दासी बना लिया है, जिन्होंने आशा दासी पर नियन्त्रण कर लिया है, वे स्वरूपानुभव की प्यास को तृप्त करने के अधिकारी हैं, वे अात्मानुभव के प्यासे योग्य नायक हैं ।। २ ॥
विवेचन -- सांसारिक सुखों की आशा रखने वाले सचमुच, संसार के दास ही हैं। वे प्रत्येक को प्रसन्न रखने के प्रयत्न में न मालूम क्याक्या कर डालते हैं ? दूसरों की खशामद में लगे रहते हैं। अतः वे दास हैं। जो दास-वृत्ति धारण कर लेते हैं उन्हें कटु एवं अपशब्द सहन करने पड़ते हैं और जिन्होंने आशा को दासी बना लिया है, अपनी आज्ञाकारिणी बना लिया है अर्थात् जिन्होंने पौद्गलिक सुखों की प्राशा का परित्याग कर दिया है, वे आत्मानुभव के अधिकारी बन गये हैं।
____अर्थ ---आत्म-शुद्धि की इच्छा रूपी प्याले में स्वाध्याय रूपी मसाला भर कर ब्रह्म,प्रात्म-तेज (तप) रूपी अग्नि प्रज्वलित करके देह रूपी