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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५४
विवेचन -जैनदर्शन की तुलना अन्य किसी भी दर्शन के साथ नहीं की जा सकती क्योंकि सहस्रदर्शनरूप भौंरों के पद श्री जैनदर्शनरूप हाथी के पद में समा जाते हैं। सात नयों, सप्तभंगी तथा चार निक्षेपों से जैन तत्त्वों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। अतः जैनधर्म से तुलना करने जैसा संसार में कोई धर्म नहीं है। अधम से अधम जीव का भी उद्धार होने की रीति जैनदर्शन बताता है। प्रानन्दघन आत्मा को छोड़कर राग-द्वेष की वृद्धि करने वाले वाद के झगड़ों को करने से मन में विकल्प-संकल्प प्रकट होते हैं जिससे आनन्द के बजाय अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव होता है। अतः सहजानन्द का सागर प्राप्त करने के लिए समस्त प्रकार की विकल्प-संकल्प की दशा को छोड़कर आत्मा का ध्यान करना चाहिए।
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( राग-प्रासावरी ) आसा औरन की कहा कीजे, ज्ञान-सुधारस पीजे ॥ . भटके द्वार-द्वार लोकन के, कूकर आसाधारी। प्रातम अनुभव रस के रसिया, उतरइ न कबहुँ खुमारी ॥
प्रासा० ॥ १॥ पासा दासी के जे जाये, ते जन जग के दासा । ... प्रासा दासी करे जे नायक, लायक अनुभी प्यासा ।।
प्रासा० ॥ २ ।। मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अगनि पर जाली । तन भाठी प्रवटाइ पिये कस, जागे अनुभौ लाली ।।
आसा० ।। ३ ।। अगम पियाला पीरो मतवाला, चिन्हे अध्यातम वासा । आनन्दघन ह जग में खेले, देखे लोक तमासा ।।
प्रासा० ।। ४ ।।
अर्थ –श्रीमद् अानन्दघनजी उद्बोधन कर रहे हैं कि दूसरों की आशा क्यों करते हो? पौद्गलिक सुखों से शान्ति एवं सुख की क्या आशा की जा सकती है ? इन पौद्गलिक सुखों की आशा त्याग कर ज्ञान