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श्री आनन्दघन पदावली - १५३
विवेचन- योगिराज ने इस पद्यांश में मुक्तात्माओं के स्थान का संक्षेप में अत्यन्त ही सुन्दर वर्णन किया है । अलोकाकाश में लोकाकाश की स्थिति है, जहाँ धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और आकाश है तथा इन पाँच द्रव्यों के प्रदेश एक-दूसरे से संलग्न हैं । अतः ये अस्तिकाय कहलाते हैं, किन्तु काल द्रव्य के प्रदेश जुड़े हुए नहीं हैं इसलिए यह द्रव्य होते हुए भी अस्तिकाय नहीं है । लोकाकाश के अन्त में मुक्तात्मानों के ठहरने का स्थान है, जहाँ अनन्तं सुख, अनन्त ज्ञान - दर्शन तथा अनन्त शक्ति का मिलाप होता है | चेतन ऐसे स्थान पर पहुँच कर फिर नीचे कदापि नहीं आता ।
अर्थ -- श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि षड्दर्शन एवं समस्त मतमतान्तरों में तो अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क भरे हुए हैं । इस वाणीविलास के पृथक्-पृथक् राग की गहनता की थाह पाना अत्यन्त कठिन है । 1. किस-किसके वचनों को, कौन - कौनसी मान्यताओं को प्रामाणिक माना जाये ? यह एक तार का, एक तत्त्व का, एक साँस का यह चोला अर्थात् शरीर इन षड्दर्शन रूप पत्थरों का बोझा कैसे उठा सकता है ? अर्थात् लघु आयु में अनेक दर्शनों की जानकारी करना पर्वत के समान भारी है । तात्पर्य यह है कि इस प्ररूप जीवन में आत्मानुलक्षी बनकर ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।। ३ ।।
विवेचन - यदि देखा जाये तो एक तार के चोले की तरह आत्मा में षड्दर्शनों का समावेश होता है । एक तार के तम्बूरे में से जिस प्रकार छह स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार आत्मा में से षड्दर्शन प्रकट हुए हैं और सम्यक्त्व ज्ञान होने पर वे उसमें समा जाते हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने जैनदर्शन को एक तार के चोले की उपमा दी है । ऐसे उत्तम जैनदर्शन का पुन: प्रचार करने का प्रयत्न करने वाले वीर पुरुष पुन: उत्पन्न हों ।
अर्थ - इस पद्यांश में षट्पद में श्लेष है जिसका अर्थ है भ्रमर और षड्दर्शन । षट्पद भ्रमर के पैरों के समान षड्दर्शनों के ज्ञान की श्रात्मज्ञान रूपी गज-पद से कैसे तुलना की जा सकती है ? षड्दर्शनों का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी आत्म-ज्ञान नहीं होता है, फिर समानता कैसी ?
आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आनन्द स्वरूप चेतन प्रभो ! आपका साक्षात्कार हो जाये तो मन की समस्त उलझनें सुलझ जायें अर्थात् मन का संशय और मन की चंचलता दोनों नष्ट हो जायें । श्रात्मज्ञान-भेदज्ञान की प्राप्ति ही मन की चंचलता नष्ट कर देती है ॥ ४ ॥