________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६२
समता से दो घड़ी में परमात्म स्वामी का तेरहवें गुणस्थानक में मिलाप होता है। अनुभव मित्र को पाकर समता उपर्युक्त उद्गार प्रकट करती है ॥३॥
हे अनुभव ! मेरी चित्त रूपी चक्की चारों ओर घूम रही है जिसने मेरे प्राणों को पीसकर मैदा (बारीक पाटा) बना दिया है। अतः हे प्रियतम ! हे प्रभो ! मुझ अबला से इतनी जबरदस्ती मत करो। इस प्रकार मैं अपने प्रियतम को 'पिउ-पिउ' शब्दों के द्वारा चातक के समान पुकारती हूँ। मैं मन, वाणी और देह से अपने स्वामी को रिझाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ। हे स्वामी! कृपा करके अब तो आप मेरे घर पधारो और मुझे अपने दर्शन दो। अब तो मुझे एक आप ही का आधार है। आपके दर्शन के बिना एक पल भी एक करोड़ वर्ष जितना प्रतीत होता है। हे चेतन! अब तो आप प्रत्यक्ष होकर मुझे दर्शन दो ॥ ४॥
समता को अत्यन्त उदास देखकर अनुभव उसे आश्वासन देता है कि हे समता! तनिक मेरी बात सुन और धैर्य रख। इस तरह व्यथित होकर घबराने में बुद्धिमानी नहीं है। शीघ्रता करने से कार्य नहीं बनता। आतुरता में विवेक नहीं रहता। इस पर समता बोली कि हे अनुभव ! तुम मेरे चेतन स्वामी से मेरा मिलाप कराम्रो। तुम ज्ञानी हो। मैं तुम्हें अधिक क्या कहूँ ? अनुभव ने उसे आश्वस्त किया कि तू चिन्ता मत कर। आनन्दघन प्रभु घर आकर शीघ्र ही तुझसे मिलेंगे। तू उनसे मिलकर केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूपी दो चक्षुत्रों से उन्हें निहार कर सहजानन्दमय बन जाएगी और किसी प्रकार की वेदना नहीं रहेगी॥५॥
(२०)
(राग गौड़ी) देखौ आली नटनागर के सांग ।
और ही और रंग खेलत ताते, फीकी लागत मांग ॥देखौ०॥१॥ उरहानो कहा दीजे बहुत करि, जीवत है इहि ढांग । मोहि और विच अन्तर एतो, जेतो रूपे रांग ।।देखौ०॥२॥ तन सुधि खोइ घूमत मन ऐसे, मानु कछु खाई भांग । एते पर प्रानन्दघन नावत, कहा और दीजै बांग ।।देखौ०।।३।।