________________
श्री प्रानन्दघन पदावली-६३
अर्थ- समता अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि 'हे सखि ! मेरे स्वामी चेतन की वेश-भूषा तो देखो। वह चतुर नट और ही और विभावदशा में रम रहा है। वह पल-पल अशुद्ध परिणति के योग से विभिन्न रंग खेलता है जिससे उसकी इच्छाएं फीकी प्रतीत होती हैं। वह प्रात्म स्वामी क्षण-क्षण में नई-नई इच्छाएँ करता है। कभी वह स्पर्शेन्द्रिय के सुख भोगने की इच्छा करता है, कभी विविध पकवान खाने की इच्छा करता है, कभी विभिन्न प्रकार के नाटक देखने की इच्छा से भाँति-भाँति की प्रवृत्ति करता है, कभी चिन्ता करता है, कभी हास्य करने लगता है और कभी दीनता प्रदर्शित करता है। कभी वह अनेक प्रकार के छलों में तन्मय हो जाता है, जिससे वह अपने स्वरूप में शुद्ध प्रतीत नहीं होता ॥१॥
यह मेरा स्वामी सब का स्वामी होकर भी इच्छाओं का दास बना हुआ है। मैं इसे बार-बार क्या उपालम्भ हूँ ? कहाँ तक मैं इसे सावधान करूं ? वह इसी ढंग से अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। इसकी तो ढेरों इच्छाएं हैं। वे भला कैसे पूर्ण हो सकती हैं ? इस कारण ही तो मैं कह रही हूँ कि मेरे और माया के मध्य इतना अन्तर है जितना चांदी और रांगा में है ।।२।।
... मुझे किसी सांसारिक भोग की इच्छा नहीं है। मैं तो चेतन को बिना किसी प्रकार की कामना के निज स्थान की ओर ले जाने वाली हूँ, किन्तु चेतन तो माया के लिए देह की सुध-बुध खोकर घूमता है मानों भंग के नशे में फिर रहा हो । जीवात्मा ने अनादि काल से मोह रूपी भंग पी हुई है जिसके कारण वह संसार में भटक रहा है। मेरे बार-बार समझाने पर भी वह नटनागर चेतन अपने स्वभाव में नहीं पाता। इसे जाग्रत करने के लिए किस प्रकार बाँग दी जाये ? इसे सचेत कैसे किया जाये?
क्षण-क्षण में चिन्ता, शोक आदि के विचारों से मस्तिष्क घूमता है जिससे मुझे यह भी नहीं सूझता कि मैं कहाँ हैं? क्या कर रही हैं और मुझे क्या करना चाहिए ? चिन्ता चिता की तरह मेरा अन्तरंग जलाकर राख कर रही है। मैं तो शुद्ध चेतन-स्वामी को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हूँ। मैं अपने तन-मन की सुधि भी खो चुकी हैं, फिर भी यदि मेरे आत्म-स्वामी मेरे घर न आयें तो मैं क्या करूं ? श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि अब तो सम्बन्ध की पराकाष्ठा हो गई है। इसे अब और अधिक सचेत कैसे किया जाये ? ॥३॥