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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०४ अर्थ-भावार्थ-भक्त को सुमति अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि हे सखी! मुझे श्री चन्द्रप्रभु का मुख-चन्द्र देखने दे जो उपशम रस का मूल है और कलुषित मल एवं दुःख-द्वन्द्व रहित है। ऐसे प्रभु के मुख-चन्द्र को मुझे निहारने दे ॥ १॥ ऐसा मुख-चन्द्र मैंने न तो सूक्ष्म निगोद में देखा और बादर निगोद में भी मैंने विशेष तौर पर नहीं देखा। ऐसा मुख-चन्द्र मैंने पृथ्वी, जल, अग्निकाय तथा वायुकाय में भी लेशमात्र नहीं देखा। अब मनुष्य भव में तो हे सखी ! मुझे भगवान श्री चन्द्रप्रभु का मुख निहारने दे, मुझे उनसे लगन लगाने दे ॥२॥ वनस्पति में भी बहुत समय तक ऐसे मुख-चन्द्र के दर्शन नहीं हुए। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय एवं संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्यायों में भी. ऐसे मुख के दर्शन के बिना जल की रेखा के समान में विफल रही ॥ ३ ॥ देवलोक में, तिर्यंच योनि में, नरक के निवासों में भी यह चन्द्र-मुख दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अनार्य मनुष्यों की संगति के कारण दुर्लभ मनुष्य भव में भी इस मुख-चन्द्र के दर्शन नहीं हए और अन्तमुहर्त काल को स्थितिरूप अपर्याप्त अवस्था में भी यह चतुर ज्ञानी परमात्मा मेरे हाथ नहीं आया। अतः हे सखी श्रद्धा! तू चन्द्रप्रभु के दर्शन मुझे करने दे ॥ ४ ॥ इस प्रकार जिनेश्वर देव श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन के बिना अनेक स्थान व्यतीत हो गये। अब तो जिनागमों में बुद्धि निर्मल करके निष्काम भाव से निर्मल भक्ति करें।५॥ साधुत्रों की निर्मल भक्ति से हे सखी! अवंचक योग की प्राप्ति होती है, जिसकी क्रियाएँ भी अवंचक अर्थात् अमोघ होती हैं और फल भी अवंचक होता है। तात्पर्य यह है कि आत्म-स्वरूप को प्राप्त सद्गुरु के योग से उक्त अवंचक त्रिपुटी सिद्ध होती है ।। ६ ।। श्री जिनेश्वर भगवान के वचनों की प्रेरणा से ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं और उनकी अचिन्त्य शक्ति से मोहनीय कर्म क्षय हो जाते हैं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसे श्री चन्द्रप्रभु भगवान के चरण-कमल इच्छित फल प्रदान करने वाले कल्प-वृक्ष हैं ॥ ७ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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