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श्री आनन्दघन पदावली-३०३
इम अनेक थल जाणिये सखी० दरसण विन जिनदेव । आगम थी मति प्राणिये सखी०, कीजे निरमल सेव ।
सखी० ॥५॥ निरमल साधु भगति लही सखी०, जोग अवंचक होय । किरिया प्रवंचक तिम सही सखी०, फल अवंचक जोय ।
सखी० ॥६॥ प्रेरक अवसर जिनवरू सखो०, मोहनीय खय थाय । कामित पूरण सुरतरु सखो०, 'प्रानन्दघन' प्रभु पाय ।
सखी० ॥७॥ शब्दार्थ-उपसम रस= शान्त रम। कंदमूल । कलिमल = रागद्वेष आदि मैल । दंद=उत्पात । सुहम =सूक्ष्म । निगोदे साधारण वनस्पति काय में। बादर=दिखने वाले जीव । पुढ़वी=पृथ्वीकाय । आउ =जल, अप्काय । तेऊ=अग्निकाय । • वाऊ हवा के जीव । लेस जरा भी। घण=अधिक । दीहा=दिवस। दीठो देखा। दीदार=दर्शन । वि= दो इन्द्रिय जीव । • ति तीन इन्द्रिय जीव । . चौरिदी=चार इन्द्रिय वाले जीव । लीहा लकीर । सन्नी-मन वाले जीव । तिरि = तिर्यंच । निरयनरक । अनारज =अनार्य । अपज्जता=अपर्याप्त जीव । प्रतिभास =अन्तमुहूर्त काल की स्थिति । चतुर == पूर्ण ज्ञानी प्रभु । लही--प्राप्त कर । प्रवंचक= कपट रहित । कामित-इच्छित ।
यह जीवन क्षणभंगुर है, श्रीमद् चन्द्रप्रभु का मुख-चन्द्र देखने के लिए लालायित है । ऐसे योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन ।
_20059 दुकान
20259 घर
मै. रामाकिशन जगन्नाथ है
जनरल मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट .मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510