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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०२ आप द्वादशांगी रूपी मुक्तिमार्ग के प्रणेता होने के कारण विधि हैं, मोक्षमार्ग का विधान करने के कारण आप ब्रह्मा हैं, आपके उपदेश आत्मिक गुणों के पोषक होने के कारण आप 'विश्वम्भर' हैं। इन्द्रियों के स्वामी होने के कारण आप 'हषीकेश' हैं और जगत् द्वारा पूज्य होने के कारण आप 'जगन्नाथ' हैं। हे स्वामी! आप पापों को हरने वाले हैं, पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं और साथ ही आप परम-पद मोक्ष प्रदान करने वाले हैं ॥७॥ इस प्रकार आप इन अनेक अभिधानों (नामों) को धारण करने वाले हैं। इन सबका विचार अनुभवगम्य है। जो इन अभिधानों का यथार्थ स्वरूप जानता है उसे श्री सुपार्श्वनाथ भगवान आनन्द का अवतार ही बना देते हैं, अर्थात् आनन्दस्वरूप बना देते हैं ।।८।। श्री चन्द्रप्रभु जिन स्तवन (राग-केदारो, गौडी-कुमरी रोवे. प्राक्रन्द करे, मुने कोइ मुकावे-ए देशी) चन्द्रप्रभ मुखचन्द सखी मुने देखण दे, उपसम रस नो कन्द । सेवे सुर नर इन्द सखी०, गत-कलिमल दुःख दंद । सखी० ।।१।। सुहम निगोदे न देखियो सखि०, बादर अति ही विसेस । पुढवी पाऊ न लेखियो सखी०, तेऊ वाऊ न लेस । सखी० ।।२।। वनसपती प्रति घण दिहा सखी०, दीठो नहीं दीदार । वि ती चौरिदी जल लोहा सखी०, गति सन्नी पट धार । ___ सखी० ॥३॥ सुर तिरि निरय निवास माँ सखी०, मनुज अनारज साथ । अपज्जता प्रतिमास माँ सखी०, चतुर न चढ़ियो. हाथ । सखी० ॥४॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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