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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६०
(११) . कुण खेले तोसु होरी रे संग लागोजी पावें । अपने-अपने मंदर निकसी, कांइ सांवली कांइ गोरी रे ।
संग० ॥१॥ चोवा चन्दन अगर कुकामा, केसर गागर घोरी रे ।
___ संग० ॥ २॥ भर पिचकारी रे मुंह पर डारी, जगई तनु सारी रे। ..
. संग० ॥ ३ ॥ 'प्रानन्दघन' प्रभु रस भरी मूरत, आनन्द रहिवा झोरी रे ।
संग० ॥ ४ ॥
(१२) बनडो भलो रिझायो रे,
म्हारी सूरत सुहागन सुघर बनी रे । चौरासी में भ्रमत-भ्रमत अबके मौसर. पावो । अबकी विरिया चूक गयो तो कियो आपरो पावो ।
बनडो० ॥ १॥ साधु संगत किया केसरिया, सतगुरु ब्याह रचानो। साधु जन की जान बनी है, सीतल कलश वंदायो ।
__ बनडो० ॥ २॥ तत्त्व नाम को मोड़ बंधावो, पडलो प्रेम भरायो। पांच पचीस मिली प्रातमा, हिलमिल मंगल गामो ॥ ३ ॥ चोरासी का फेरा मेटी, परण पति घर प्रायो। निरभय डोर लगी साहब सु, जब साहिब मन भायो।
बनडो॥ ४॥ करण तेज पर सैज बिछी है, तां पर पोढ़े मेरा पीवे । 'प्रानन्दघन' पिया पर मैं, पल-पल वारू जीवे ।
बनडो॥ ५॥