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श्री मानन्दघन पदावली-३६१
मैं कबहु भव अन्तर प्रभु पाइ न पूजे । अपने रस वसि रीझ के दिल बाढे दूजे । मैं० ॥ १॥ वंछित पूर्ण चरण की मैं सेव न पाई। तो या भव दुखिया भयो, याहि बनि प्राई । मैं० ।। २ ॥ मन के ममं सुमन ही में ज्यों कूप की छैयां । 'पानन्दघन' प्रभु पास जी प्रब दीजे बैयां । मैं० ॥ ३ ।।
(१४) राग - भैरव नाटकीयाना खेल . से लागो मन मोरो।
और खेल सब सेल हैं पण नाटक दोहरी । नाट० ॥१॥ ज्ञान का ढोल बजाय के चौहटे बाजी मांडु । काम क्रोध का पुतला सोजी ने काढू । नाट० ॥२॥ नर न वांधुले सुर सत ए ऐसा खेल जमाऊँ। मन मोयर प्रागे धरूं कछु मोजां पाऊँ । नाट० ।। ३ ।। प्रणि कटारी पेहर के तजु तन की प्रासा। सरत बांधु बगने चढं देखा तरां तमासा । नाट० ॥ ४ ।। सेल खेल धरती तणु, सोना मोना न सुहाइ। वंशमरत बिना खेल है, ऐसा सुख जचाइ । नाट. ॥ ५ ॥ उलट सुलट गृह खेल कु, ताकु सीस नमाउं । कहे 'प्रानन्दघन' कछु मांगहुँ बेगम पद पाउं । नाट० ।। ६ ।।
(१५) हठ करी टुक हठ के कभी, देत निनोरी रोई ।। १ ।। मारग ज्यु रंगाइ के रीही, पिय सदि के द्वारि । लाजडागमन में नहीं, कानि पछेवड़ा टारि ।। २ ।।