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श्री आनन्दघन पदावली-२८५
इच्छा है। शुद्ध चेतना कहती है कि इस प्रकार से पति को प्रसन्न करना मैंने कदापि सोचा ही नहीं। वास्तव में, पति को प्रसन्न करने का तरोका तो धातु-मिलान को तरह है। जिस प्रकार स्वर्ण-चांदी मिलकर एक हो जाते हैं, उसी तरह पति को प्रसन्न करने के लिए उसकी प्रकृति में स्वयं को समर्पित करके एकरस होना है ।। ४ ॥
कतिपय मनुष्य कहते हैं कि ईश्वर को यह लोला है, वह सबकी इच्छात्रों को जानता है और इच्छानों को जानकर वह सबकी आशाएँ पूर्ण करता है। शुद्ध चेतना का कथन है कि दोष-रहित परमात्मा में यह लोला सम्भव नहीं होतो क्योंकि लोला तो दोषों का विलास है ।।५।।
पति को चित्त-प्रसन्नता हो पति-भक्ति का फल कहा गया है। पति को प्रसन्न रखने को यह सेवा हो अखण्डित पूजा है, भक्ति है। कपट-रहित होकर भिन्नता का भाव त्याग कर स्वयं को पति के प्रति समर्पित कर देना हो, भगवान में चित्तवृत्ति को लोन करना ही, श्रीमद् अानन्दघन जो कहते हैं कि मोक्ष-पद को रेखा है अर्थात् अनन्त सुख प्राप्त करने का मार्ग है ।। ६ ।।
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श्री अजित जिन स्तवन . (राग -प्रासावरो; म्हारो मन मोह्यो श्री विमलाचले रे, ए देशी) पंथड़ो निहालु बोजा जिन तणो, अजित-अजित गुणधाम । जे ते जोत्या तेणे हुं जोतियो रे, पुरुष किश्यु मुझ नाम ।
पंथ० ।। १ ।।
चरम नयन करि मारग जोवतो, भूल्यो सयल संसार । जिण नयने करि मारग जोइये रे, नयण ते दिव्य विचार ।
पंथ० ।। २ ॥
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पुरुष परम्पर अनुभव जोवतां, अंधो अंध पलाय । वस्तु विचारे जो प्रागमे करी रे, चरण धरण नहीं ठाय ।
पंथ० ।। ३ ।।
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