________________
योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८४
अर्थ-भावार्थ-शुद्ध चेतना अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि श्री ऋषभदेव जिनेश्वर मेरे प्रियतम हैं। अत: मैं अब किसी अन्य को अपना स्वामी बनाना नहीं चाहती। मुझ पर प्रसन्न हुए मेरे ये स्वामी मेरा साथ कदापि नहीं छोड़ेंगे। इनके सम्बन्ध का आदि तो है किन्तु अन्त नहीं है अर्थात् अब मेरा और इनका साथ छूटने वाला नहीं है। यह साथ अनन्तकालीन है ।। १ ॥
संसार में प्रेम-सम्बन्ध तो सभी करते हैं किन्तु वास्तव में यह कोई प्रेम-सम्बन्ध नहीं है। मेरा प्रेम-सम्बन्ध तो निरुपांधिक है अर्थात् उपाधि रहित है और संसार में जो प्रेम-सम्बन्ध है वह उपाधियुक्त है जो प्रात्म-ऋद्धि को खोने वाला है, आत्म-ऋद्धि का विनाशक है ॥२॥
संसार में प्रेम-सम्बन्ध के कारण कोई पत्नी अपने पति की मृत्यु पर उसकी चिता के साथ जल जाना चाहती है और आशा करती है कि इस प्रकार मेरा पति के साथ शीघ्र मिलन हो जायेगा; परन्तु मिलन का कोई निश्चित स्थान नहीं होने से मिलन कदापि सम्भव नहीं है ।। ३ ।।
. कोई पत्नी पति को रिझाने के लिए अनेक प्रकार के उग्र तप करती है और समझती है कि देह को तपाने से ही पति प्रसन्न होंगे। इस प्रकार से मिलाप की इच्छा तो शारीरिक धातु के मिलाप की
'प्रात्मा ही परमात्मा है। उससे मिलने के लिए परमात्मा के शुद्ध स्वरूप के साथ आत्मा का तन्मय हो जाना ही सच्चा रंजन है ।'
ऐसे ज्ञान-घन अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघन जी को हमारे कोटि-कोटि वन्दन !
जय मेवाड़ ब्राण्ड डबल फिल्टर्ड एग मार्क 'मूगफली का तेल' प्रयोग करें। 8 आदिनाथ ऑयल इण्डस्ट्रीज ० .
रेलवे स्टेशन के पास, भिण्डर-३१३ ६०३ ।। - - - - - - - - -
-
--