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श्री श्रानन्दघन चौबीसी स्तवन
( १ )
श्री ऋषभ जिन स्तवन
( राग मारू : करम परीक्षा करण कुंवर चल्यो, ए देशी) ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो और न चाहूँ कंत ।
,
झ्यो साहब संग न परिहरे, भांगे सादि अनन्त । ऋ० ।। १ ।।
प्रीत सगाई जगमा सहु करे, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय । ऋ० ।। २ ।।
को कन्त कारण काष्ठ भक्षण करें, मिलस्यूं कंत नै धाय । ए मेलो नवि कुदिये संभवे, मेलो ठाम न ठाय ।। ऋ०।। ३ ।। कोइ पति रंजन प्रति घणुं तप करें, पति रंजन तन ताप । ए पति रंजन मैं नवि चित्त ध, रंजन धातु मिलाप ।
ऋ० ।। ४ ।।
कोइ कहै लीला ललक अलख तरणी, लख पूरे मन ग्रास । दोषरहित ने लीला नवि घटै, लीला दोष विलास ।
ऋ० ।। ५ ।।
चित्त प्रसत्ति पूजन फल का, पूजी प्रखंडित एह । कपट रहित थई प्रातम अरपणा, 'श्रानन्दघन' पद रेह |
ऋ० ।। ६ ।।
शब्दार्थ - प्रीतम = अत्यन्त प्रिय स्वामी | कंत = पति । इयो = प्रसन्न हुमा परिहरं = छोड़ता है । निरुपाधिक = उपाधि रहित, अलौकिक । सोपाधिक= उपाधियुक्त । को = कोई | काष्ठ = लकड़ी । धाय = दौड़कर | कदिये कभी भी । ठाम = स्थान । ठाय = स्थिति । रंजन = प्रसन्न करने के लिए । ललक = उत्कट अभिलाषा । प्रसत्ति = प्रसन्नता ।
रेह् = रेखा, चिह्न,
लक्षण ।