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श्री आनन्दघन पदावली-३६७
. श्री पार्श्व जिन स्तवन प्रणम् पाद-पंकज पार्श्वना, जस वासना अगम अनूप रे । मोह्यो मन-मधुकर जेहथी, पामे निज शुद्ध स्वरूप रे ।
प्रणम ॥ १ ॥ पंक कलंक शंका नहीं, नहीं खेदादिक दुःख दोष रे । त्रिविध अवंचक जोग थी, लहे अध्यात्म सुख पोष रे ।
प्रणम् ॥ २ ॥ दुरदशा दूरे टले, भजे मुदिता मैत्री भाव रे । वरते नित चित्त मध्यस्थता, करुणमय शुद्ध स्वभाव रे ।
प्रणम् ।। ३ ।। निज स्वभाव स्थिर कर धरे, न करे पुद्गल की खंच रे। साखी हुई बरते सदा, न कहा पर भाव प्रपंच रे ।
प्रणम् ।। ४ ॥ सहज दशा निश्चय जगे, उत्तम अनुभव रस रंग रे। राचे नहीं पर भाव शू, निज भावशू रंग अभंग रे।
प्रणम् ॥ ५॥ निज गुण सब निज में लखे, न चखे परगुणनी रेख रे । खीर नीर विवरो करे, ए अनुभव हंस शु पेख रे ।
प्रणम् ॥ ६॥ निर्विकल्प ध्येय अनुभवे, अनुभव अनुभव नी पीस रे । और न कबहु लखी शके, 'प्रानन्दघन' प्रीत प्रतीत रे ।
प्रणम् ।। ७ ।।
टिप्पणीः-श्री ज्ञानसारजी के अनुसार यह स्तवन श्री देवचन्दजी कृत होने का अनुमान है। यह स्तवन श्री पंडित मंगलजी उद्धवजी शास्त्री द्वारा सम्पादित एक गुजराती पुस्तक से उद्धृत है।