________________
योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६६
अर्थ :- हे पार्श्वनाथ प्रभो ! आप मुझे बतायें कि आपके स्वरूप की झलक मुझे कैसे हो ? आपकी और मेरी सत्ता अटल, निर्मल और निराकार होने के कारण एक है, अभिन्न है ।। १ ।।
अर्थः- उत्तर में बताया है कि मेरे कथित वचनों के अनुसार निश्चय नय से तो कोई भेद नहीं है । यह परमात्मा है और यह जीवात्मा है - ऐसा भेद नहीं है; किन्तु व्यवहार नय से देखें तो अनेक भेद हैं ।। २ ।।
अर्थ :- निश्चय नय से न बन्ध है और न मोक्ष, किन्तु व्यवहार नय अपेक्षा बंध और मोक्ष दोनों हैं । निश्चय नय के अनुसार आत्मा नित्य सिद्धात्मा की अपेक्षा अखण्ड है. अनादि है और अविचल है । आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह नित्य है, अमर है । अनादि होने के कारण आत्मा के स्वरूप में कोई बाधा नहीं आती, अत: वह अबाधित है ॥ ३ ॥
अर्थः- आपके और मेरे स्वरूप में अन्तर अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु कारण हैं । इस अन्तर ( भेद ) को दूर करने का एकमात्र कारण अनुपम आत्मस्वरूप ही है । जब प्रवरण से मुक्त होकर आत्मा अपना स्वरूप प्राप्त कर लेगा तब यह भेद ( अन्तर ) नहीं रहेगा || ४ ||
अर्थः- आत्मा एवं परमात्मा में निश्चय नय से कोई भेद नहीं है । आत्मा एवं परमात्मा एक ही हैं । स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है । अन्य तो आरोपित स्वरूप है, स्थापित धर्म है । उस आरोपित धर्म के अनेक भेद हैं ।। ५ ।।
विवेचनः --- आत्मा कभी मनुष्य, कभी पशु, कभी पक्षी, कभी स्त्री, कभी पुरुष, कभी पिता, कभी पुत्र, कभी भाई, कभी बहन रूप में होता है । ये समस्त प्रारोपित रूप हैं । वास्तव में, आत्मा तो आत्मा ही है ।
अर्थः–धर्मी एवं धर्म में एकता है अर्थात् धर्मी को धर्म से भिन्न नहीं किया जा सकता । आत्म धर्म युक्त जो आत्मा है उसके स्वरूप में और मुझ में (परमात्म स्वरूप में) कोई भेद नहीं है, किन्तु आत्मा की सत्ता देखकर एकता बताना मूढ़-मतियों का दुराग्रह है || ६ ||
अर्थः- जो आत्मा आत्मधर्म के अनुरूप अपनी आत्मा में रमण करता है अर्थात् जो आत्म स्वभाव में रहता है, वह आनन्दघन पद प्राप्त ये हुए है और उसी का नाम परमात्मा है ।। ७ ।।