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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३६८
अर्थः: - भगवान श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरण-कमलों में मैं प्रणाम करता हूँ, जिनकी सुगन्ध अगम्य, अनूठी तथा अनुपम है । मेरा मन रूपी मधुकर (भ्रमर ) प्रभु के गुरण रूपी मकरन्द की सुगन्ध में मुग्ध हो गया है और अनादिकालीन मलिनता त्याग कर अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर रहा है ॥ १ ॥
अर्थ :- भगवान के चरण कमलों की सेवा से अशुभ कर्म - कीचड़ लगने की शंका नहीं रहती और न राग-द्वेष - जनित दुःख एवं प्रमाद से उत्पन्न खेद होने का सन्देह ही रहता है । इससे मन-वचन काया के त्रिविध शुद्ध योग से आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति होती है ।। २ ।।
अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ प्रभु के नाम-स्मरण से प्रसन्नता, मैत्री भाव, मध्यस्थता (समता ), करुणा भाव आदि शुद्ध स्वभाव निरन्तर मन में बने रहते हैं ।। ३ ।।
अर्थ :- भगवान श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर की भक्ति से आत्मा निज स्वभाव में स्थिरता धारण कर लेती है और उसे पुद्गल का कोई आकर्षण नहीं रहता । तत्पश्चात् श्रात्मा सदा साक्षी भाव में रहता है और हर्ष - शोक आदि पर भावों का प्रपंच नहीं रहता अर्थात् मोह का जंजाल तनिक भी नहीं रहता ॥ ४ ॥
श्रर्थः-तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की सेवा-भक्ति से आत्मा की सहज दशा निश्चय ही जागृत हो जाती है और उत्तम अनुभव रस के रंग में मन मस्त रहता है । परभावों में मन तनिक भी मग्न नहीं होता । वह तो केवल आत्म-भाव के रंग में ही मग्न रहता है ॥ ५ ॥
अर्थः - श्री पार्श्वनाथ भगवान के स्मरण से आत्मा अपने समस्त गुणों को स्वयं में देखता है औौर पर - गुणों का तनिक भी प्रास्वादन नहीं करता । जिस प्रकार हंस पानी और दूध को अलग करके दूध ही ग्रहण करता है, उसी प्रकार से प्रात्मा अनुभव ज्ञान से विभाव दशा छोड़ कर अपनी स्वभाव दशा को ग्रहण करता है ।। ६ ।।
अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति से आत्मा अनुभव ज्ञान के अभ्यास से उत्पन्न दशा से निर्विकल्प ध्येय का अनुभव करता है । ऐसे शुद्ध स्वभाव की जागृति के बिना परमात्म-दशा की प्रतीति कदापि नहीं होती । श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि प्रानन्द स्वरूप परमात्म पद की प्राप्ति तो शुद्ध प्रात्मिक स्वभाव के बिना नहीं होती ।। ७ ॥