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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०६ इम पूजा बहुभेद सुणीने, सुखदायक शुभ करणी रे । भविक जीव करसे ते लहसे, 'पानन्दघन' पद धरणी रे। . सुवि० ।। ८ ।। शब्दार्थ-उलट-उल्लास । प्रह=प्रातःकाल । सुचिपवित्र । हरखि हर्षपूर्वक । देहरे मन्दिर । दह=दस। तिग-तीन। पण = पाँच । अहिगम-अभिगम। साचवतां पूर्ण करके । घर=स्थिर । अक्खत=अक्षत, चावल । वर=श्रेष्ठ । वास=सुगन्ध से । सुगंधो-गंधित । दुई-दो। अनन्तर=तुरन्त । परम्पर=परम्परा से । प्राणायाज्ञा । प्रसत्ति प्रसन्नता। सुगति = अच्छी गति (मनुष्य, देव) सुर मन्दिर-वैमानिक देवों के स्थान । पइबो दीपक । गंध केसर आदि। निवेज-नैवेद्य, मेवे । अडविधि =अष्टप्रकारी। भविक = भव्य जीव, मुक्ति में जाने वाले प्राणी । सत्तर=सतरह । अटोत्तर=एक सौ आठ । दोहग = दुर्भाग्य । छेदे नष्ट करता। तुरिय=चौथा। पडिवत्ती=अात्मस्वरूप प्राप्ति । भाखी कही। धरणी=पृथ्वी। आनन्दघनपदधरणी=मोक्ष। .. अर्थ-भावार्थः --श्री सुविधिनाथ भगवान के चरणों में नमन करके शुभ कार्य करने चाहिए। हृदय में अत्यन्त उमंग और उल्लास से प्रात:काल में उठते ही श्रद्धापूर्वक भगवान का स्मरण, पूजन करना चाहिए ॥१॥ श्री सुविधिनाथ जिनेश्वर की भक्ति में तन्मय श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि नमन । 20215 दुकान 20183 घर ० मै० श्रीराम ट्रेडर्स 8 ____३१, कृषि उपज मण्डी समिति मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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