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________________ श्री आनन्दघन पदावली-३०७ द्रव्यं और भाव से शुद्ध होकर (देह-शुद्धि, वस्त्र-शुद्धि और भावशुद्धि - अन्तर को काम, क्रोध, लोभ एवं वासना से रहित करके) भाव पूर्वक अत्यन्त हर्षित होकर जिनालय में जाना चाहिए। दस त्रिकनिसीहि त्रिक, प्रदक्षिणा त्रिक, प्रणाम त्रिक, पूजा त्रिक, अवस्था त्रिक, दिशा त्रिक, प्रमार्जन त्रिक, आलंबन त्रिक, मुद्रा त्रिक तथा प्रणिधान त्रिक और पाँच अभिगमों-सचित्त त्याग, अचित्त ग्रहण, उत्तरासन, नत मस्तक एवं अंजलीकरण और एकाग्रमन का पालन करते हुए एकाग्रचित्त होना चाहिए ।।२।। पुष्प, अक्षत (चावल), सुन्दर वास चर्ण, सुगन्धित धूप एवं दीपक —यह पाँच प्रकार की अंग पूजा जिसे गुरु-मुख से श्रवण की है और जिसके सम्बन्ध में आगमों में उल्लेख है - वह मन लगा कर करनी चाहिए ।। ३ ।। । ___ इस पूजा का दो प्रकार का फल होता है-एक तो अन्तर रहित, तुरन्त प्रत्यक्ष में प्राप्त होता है और दूसरा फल परम्परा से परोक्ष में अर्थात् अन्य भव में प्राप्त होता है। जिनाज्ञा का पालन तथा चित्त की प्रसन्नता प्रत्यक्ष फल है और परोक्ष फल मुक्ति है, अन्यथा उत्तम सामग्री युक्त मनुष्य भव अथवा देव-गति की प्राप्ति है ।। ४ ।। पुष्प, अक्षत, उत्तम धप, दीपक, केसर-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ नैवेद्य, फल और जल-कलश-इस सामग्री से अंग एवं अग्र पूजा दोनों मिलाकर आठ प्रकार की होती हैं। जो भव्य प्राणी भावपूर्वक ये पूजाएँ करता है, वह शुभ गति प्राप्त करता है ॥ ५ ॥ _ सत्तरह भेदी, इक्कीस प्रकारी तथा एक सौ आठ भेद वाली अनेक पूजाएँ हैं तथा भाव-पूजा के भी (चैत्यवन्दन, स्तवन, जाप आदि) अनेक भेद निर्धारित हैं, जो दुःख एवं दुर्गति का नाश करती हैं ।। ६ ।। __ अंग पूजा, अग्र पूजा एवं भाव पूजा के पश्चात् चौथा भेद प्रतिपत्ति पूजा है। प्रतिपत्ति से तात्पर्य अंगीकार करने से है। जिनाज्ञा का अनुसरण, समर्पण भाव जहाँ ध्यान, ध्याता एवं ध्येय का लोप हो जाता है ऐसी प्रतिपत्ति पूजा उपशान्त मोह, क्षीणमोह एवं सयोगी अवस्था में होती है। इस चौथी पूजा का वर्णन केवलज्ञानी भगवान ने उत्तराध्ययन सूत्र में किया है ।। ७ ।। ___ इस प्रकार पूजा के अनेक भेद श्रवण करके जो भविक जीव यह सुखदायक शुभ करनी करेगा, वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करेगा। ऐसा श्रीमद् अानन्दघनजी ने कहा है ॥ ८ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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