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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०८
श्री शीतल जिन स्तवन (राग-धन्याश्री गौड़ी-गुणह विसाला मंगलिक माला-ए देशो) शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगि मन मोहे रे । करुणा कोमलता, तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे।
शीतल० ॥ १ ॥ सर्व जीव हित करणी करूणा, कर्म विदारण तीक्षण रे । ' हानादान रहित परणामी, उदासीनता वीक्षण रे ।
शीतल ॥ २ ॥ पर-दुःख-छेदन इच्छा करुणा, तीक्षण पर दुःख रीझे रे । . उदासीनता उभय विलक्षण, एक ठामि किम सीझे रे। ..
. . . शीतल ॥ ३ ॥ अभयदान ते मलक्षय करुणा, तीक्षणता गुण भावे रे । प्रेरण विण कृत उदासीनता, इम विरोध मति नावे रे ।
- शीतल० ।। ४ ।। शक्ति व्यक्ती त्रिभुवन प्रभुता, निग्रंथता सयोगे रे । योगी भोगी वक्ता मौनी, अनुपयोगी उपयोगे. रे ।
___शीतल ॥ ५ ॥ इत्यादिक बहुभंग, त्रिभंगी, चमत्कार चित देती रे । अचरजकारी चित्र विचित्र, 'प्रानन्दघन' पद लेती रे।
शीतल० ॥६॥
शब्दार्थ:-ललित=सुन्दर । त्रिभंगी तीन प्रकार को भंगिमा वाले । तीक्षणता प्रचण्डता। उदासीनता =अलिप्तता। विदारण काटने में । हानादान त्याग और ग्रहण । परिणामीभाव वाले। वीक्षण=देखना । रीझे प्रसन्न होते हैं। विलक्षण=अद्भुत । ठामि स्थान । सीझे रे= सफल होना। मलनय कर्म मल नष्ट करना ।