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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४
स्तवन एवं उपदेश सुनकर सेठ-पुत्री के ज्ञान चक्षु खुल गये और उसकी भ्रान्ति नष्ट होने से देह भस्म करने का उसका 'सत्' टल गया । वह उनकी अनन्य श्राविका बन गई और श्रीमद् के आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने लगी ।
चौबीसी के सम्बन्ध में किंवदन्ती :
श्रीमद् रचित चौबीसी के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि वे एक बार शत्रु जय पर जिनेश्वर भगवान के दर्शनार्थ गये थे । उनके पीछे उपाध्याय श्री यशोविजयजी एवं श्री ज्ञानविमल सूरि दो मुनिवर गये । उस समय श्री आनन्दघनजी एक जिनालय में भाव -स्तवना में लीन हो गये । वे दोनों मुनिवर छिप कर उनकी चौबीसी का श्रवण करने लगे और याद रखते रहे । आनन्दघनजी ने श्री ऋषभदेव से लगा कर श्री नेमिनाथ तक बाईस तीर्थंकरों की स्तवना की । इतने में उन्होंने अचानक पीछे देखा तो उन दोनों मुनिवरों को देख लिया । इससे उनके उद्गार निकलने बन्द हो गये और वे वहाँ से चले गये, जिससे श्री पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के स्तवनों की रचना नहीं हो सकी । उपाध्यायजी. में इतना सामर्थ्य था कि एक हजार श्लोक श्र्वरंग करके वे उन्हें ज्यों के त्यों स्मरण रख सकते थे । आनन्दघनजी आशु कवि होने के कारण एक साथ बाईस स्तवनों की रचना कर सके, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । इस सम्बन्ध में सच्चाई तो यह है कि श्रीमद् आनन्दघनजी जहाँ-जहाँ विचरते गये, वहाँ उनके अन्तर में भगवान की भक्ति के जो विचार उठे, उन्हें वे प्रकट करते गये और भिन्न-भिन्न जिनेश्वर परमात्मा के स्तवनों की रचना करते-करते चौबीसी की रचना कर दी ।
श्रीमद् श्रानन्दघनजी के साथ श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि के सम्बन्ध : अठारहवीं शताब्दी के जैन कवियों में श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि अत्यन्त विख्यात हैं । उन्होंने रासा, चौबीसी, स्तुतियाँ, सज्झाय, देववन्दन तथा श्री सिद्धाचलजी के अनेक स्तवनों आदि की रचना की है । श्री ज्ञानविमल सूरिजी योगाभ्यास में अत्यन्त प्रवीण थे I पाटन में उपाश्रय के समीपस्थ नीम के एक वृक्ष को सरकारी सिपाही गिरा रहे थे । वे किसी भी तरह रुकने को तैयार नहीं थे । श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि ने चमत्कार बता कर नीम की रक्षा की थी। इनके श्रावक नेमीदास थे । वि. संवत् १७६६ में चैत शुक्ला पंचमी के दिन ध्यानमाला बनाई है जिसमें नेमीदास ने लिखा है