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जीवन - झाँकी - १५
मासमधुउज्ज्वलपखे ।
संवत् रसऋतुमुनीशशोभित पंचमी दिवसे चित्तविकसे, लही लीला जिम मुखे ।। १ ।। श्रीज्ञानविमलसूरि गुरुकृपा लही तास वचन श्राधार । एम रची नेमिदासे व्रतधार ।। २ ॥
ध्यानमाला
श्री ज्ञानविमल सूरि ने श्रीमद् श्रानन्दघनजी को पूज्य मानकर उनके सम्पर्क में रह कर अध्यात्म-ज्ञान प्राप्त किया था । उस युग में श्री ज्ञानविमल सूरि, श्री यशोविजयजी उपाध्याय एवं श्री सत्यविजयजी इन तीनों का पुरुषार्थ अधिक था । इन तीनों की त्रिपुटी मानी जाती थी । श्री ज्ञानविमल सूरि का श्रीमद् आनन्दघनजी के प्रति प्रत्यन्त राग था । अठारहवीं शताब्दी के महान् मुनिवरों का भी श्री श्रानन्दघनजी के प्रति प्रगाढ़ राग था ।
प्रतिमा - पूजा की मान्यता :
श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी थे । वे प्रतिमा पूजा मानते थे जिसे वे आगमों के आधार पर सिद्ध करके बताते थे । साकार का ध्यान करने के पश्चात् ही हम में निराकार ध्यान की योग्यता उत्पन्न होती है । श्री श्रानन्दघनजी मध्यस्थ तथा अध्यात्मज्ञानी होने के साथ वैरागी, त्यागी एवं सत्य - भाषी थे । अतः उनके प्रति अन्य धर्मावलम्बी लोग भी विश्वास रखते थे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने श्री सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में शास्त्रों के आधार पर प्रतिमा-पूजन विधि स्पष्ट की है
सुविधि जिरणेसर पाय नमी ने, शुभकरणी एम कीजे रे । प्रतिघरणो उलट अंगधरी ने, प्रह उठी पूजीजे रे ॥ १ ॥
'उपर्युक्त स्तवन में आगे जाकर अष्टप्रकारी पूजा श्रादि का विधान बताया है ।
श्रीमद् श्रानन्दघनजी की उत्कट विरह वेदना :
उन्होंने अपने प्रभु, प्रीतम को पाने के लिए विरह के प्रश्रु बहाये थे । विरह के अश्रु बहाना ही उनकी साधना थी। प्रीतम की याद आते ही उन्होंने अविरल आँसू बहाये थे, फूट-फूटकर रुदन किया था, परन्तु वह रुंदन किसी निराधार संसारी का न होकर आत्म-प्रतिष्ठित योगी का था, कायर का न होकर एक महान् शूर-वीर का था । उन्हें कभी जीवन में ऐसा भी प्रतीत हुना होगा कि 'ऋषभ' के बिना, अब तो मैं