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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १६
एक पल भी जीवित नहीं रह सकूंगा और उनके अन्तर से उद्गार निकले -
"श्रानन्दघन प्रभु वद्य वियोगे किम जीवे मधुमेही ।"
विरह की इतनी उत्कट वेदना प्रकृति भी सहन नहीं कर सकती । उसे भी वहाँ पराजित होना पड़ता है, पराजय स्वीकार करनी पड़ती है । उनके उद्गार थे - "हे प्रभो ! जिस प्रकार मधुमेह का रोगी वैद्य की सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार मैं भी तेरे बिना अब जीवित नहीं रह पाऊँगा ।" श्रानन्दघन के इस एक आँसू को सम्हालने की शक्ति सम्पूर्ण प्रकृति के राजतंत्र में भी नहीं थी । उनका रुदन देखकर स्वयं प्रकृति भी काँप उठी होगी और उसने श्रीमद् को छाती से लगा लिया होगा । जीवन की कठोर धरा पर चलने वालों को पता है कि प्रीतम की याद में कितने प्राँसू बहाने पड़ते हैं, कितना नाक रगड़ना पड़ता है, अपनी हड्डियों और मांस को सुखाना पड़ता है ? उनका प्रणय-संवेदन अत्यन्त प्रचण्ड था । 'ऋषभ' शब्द बोलते समय उनका स्वर काँपता होगा, उनकी देह में थरथराहट होती होगी, छिप-छिप कर सिसकने के कारण उनका सिर एवं सीना हिल उठता होगा । विदेश गये पति की याद में कोई नवोढ़ा विरहिणी जितने आँसू बहाती है, उससे अधिक आँसू प्रानन्दघनजी ने बहाये होंगे, क्योंकि उनका प्रीतम विदेश में नहीं था, वह तो उनके अन्तर की गहराई में कहीं खो गया था । वह सशरीरी नहीं था, अशरीरी था ।
मन को वश में करने पर बल :
श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने कहा, "मन को वश में करने पर ही मुक्ति शीघ्र प्राप्त होती है। शुभ-अशुभ अध्यवसायों का कारण मन ही है क्योंकि --
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः '
मन में होने वाले रागादि अध्यवसाय यदि टल जायें तो आत्मा परमात्म-स्वरूप बन जाये । मन को वश में करने के लिए वे नित्य के अभ्यास करते थे । इस प्रकार का भाव उन्होंने भगवान श्री कुन्थुनाथ स्तवन में व्यक्त किया है । गहन विषयों एवं शास्त्रों का अध्ययन करना सरल है, परन्तु मन को वश में करना कठिन है ।
मिथ्या प्रक्षेप :
कहते हैं कि एक सेठ की पत्नी को आनन्दघनजी ने सती होने से