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जीवन - झाँकी - १३
इस प्रकार श्रीमद् बाल- जीवों को योग्य गुरु की सूचना देते थे और अपने शुद्ध धर्म के ध्यान में उपयोगी रहते थे । श्रीमद् के परिचय से यशोविजयजी उपाध्याय की उत्तर अवस्था अध्यात्म ज्ञान की रमरणता में एवं अध्यात्म-ज्ञान की पुस्तकों के लेखन में व्यतीत हुई ।
सती बनने वाली स्त्री को प्रतिबोध :
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एक बार श्रीमद् जब मेड़ता में थे, तब एक सेठ की युवा पुत्री विधवा हो गई । वह अपने पति की चिता में जल मरने के लिए तत्पर हुई । उसका सतीत्व उद्वेलित हो उठा। वह सती नारी के भेष में मेड़ता से बाहर निकली । उस समय श्रीमद् आनन्दघनजी गाँव के बाहर श्मशान की तरफ एक स्थान पर बैठे हुए थे I सती होने के लिए तत्पर सेठ की पुत्री वहाँ से निकली | श्रीमद् श्रानन्दघनजी के मन में उसे उपदेश देने की इच्छा हुई । वे उस स्त्री के पास गये और कहने लगे कि तू अपने पति को पहचाने बिना किसके साथ जल मरने रही है ? स्त्री ने उत्तर दिया- "मेरे पति को जलाने के जा रहा है । उसकी आज ही मृत्यु हुई है । अतः मैं चिता में उसका आलिंगन करने के लिए उसके पीछे जा रही हूँ ।" आनन्दघनजी ने उसे कहा - " पुत्री ! तेरा प्रीतम देह है अथवा देह में स्थित आत्मा है ? देह को प्रीतम समझ कर उससे प्रालिंगन करने के लिए जा रही है तो यह अनुचित है, क्योंकि देह तो जड़ है, नश्वर है । देह किसी की नहीं होती । अतः देह को तो प्रीतम नहीं माना जा सकता । यदि तू आत्मा को प्रीतम (स्वामी) मानती है तो वह श्रात्मा तो अपने कर्मानुसार पर-भव में चला गया । अब बता तू किसका आलिंगन करेगी ।"
का प्रयत्न कर लिए ले जाया
सेठ - पुत्री बोली - "मैं स्त्री हूँ और मेरा पति देवलोक में गया है, अतः मैं उसके साथ चिता में जल कर अपने पति के पास जाऊंगी । "
इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों के द्वारा श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने उस सेठ - पुत्री को समझाया कि हमारी आत्मा परमात्मा है । ऋषभदेव भगवान को स्वामी रूप मान कर उनकी सेवा करनी चाहिए और उन्होंने स्वरचित चौबीसी का प्रथम स्तवन ललकारा -
"ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कन्त ।"