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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२
तल्लीन हो जाते थे। वे सिंह भी योगिराज को कोई हानि नहीं पहुँचाते थे, क्योंकि श्रीमद् ने अपने तपोबल से स्वयं में ऐसी आत्म-शक्ति विकसित कर ली थी। ध्यान एवं योग से उनमें अनेक लब्धियाँ उत्पन्न हो गई थीं।
प्रथम जैन पद-रचयिता:
___ श्री प्रानन्दघनजी के समय में भजनों की प्रथा चल चुकी थी। मीराबाई, कबीर तथा तुलसीदास आदि के पदों तथा भजनों का मारवाड़
और गुजरात में भी प्रचार हो गया था। इस कारण जनों में भी पदरचना का क्रम चला और पदों को गाने की ओर भी लोगों की रुचि बढ़ी। श्रीमद् ने सुमति एवं कुमति के माध्यम से अध्यात्म के ऐसे सुन्दर पदों की रचना की, जिन्हें गाकर लोगों के प्रानन्द में वृद्धि होने लगी। श्रीमद के पदों में भाषा की सजीव झलक दृष्टिगोचर होती है। जैन श्वेताम्बरों में पद-पद्धति से हृदयोद्गारों को भाषा के माध्यम से बाहर निकालने का प्रारम्भ श्रीमद् प्रानन्दघनजी ने किया। इनका अनुकरण श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय, श्री विनयविजयजी उपाध्याय तथा श्री ज्ञानसागरजी आदि ने किया और तब से पदों की रचना होती रही है।
जिनाज्ञानुसार धर्मोपदेश :
प्रत्येक गच्छ के साधु 'अपने गच्छ में धर्म है और हमारा गच्छ ही वास्तव में आगमों के अनुसार, जिनाज्ञा के अनुरूप चल रहा है'--यह कहकर अन्य गच्छों में दोष बताकर अपने गच्छ का प्रतिपादन करते थे। ऐसी दशा देखकर अनेक श्रावक संशय में पड़ गये और किसी सच्चे ज्ञानी की शोध करने लगे। कतिपय जैनों को प्रतीत हुआ कि श्री आनन्दघनजी को गच्छ का कोई पक्षपात नहीं है। जैनागमों एवं अनेक सुविहित आचार्यों के ग्रन्थों का उन्होंने पठन किया है। अतः उनके पास जाकर हम स्पष्टीकरण करें कि वर्तमान में प्रामाणिक गीतार्थ वक्ता कौन है ? वे श्रीमद् के पास आये और उन्होंने यही प्रश्न पूछा। श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रावकों को कहा, "वर्तमान समय में उपाध्याय श्री यशोविजयजी समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता एवं उपदेशक हैं। उनकी व्यवहार एवं निश्चय में समान दृष्टि पहुँचती है। अतः आप लोग उनका प्रवचन श्रवण करके स्पष्टीकरण करो।"