________________
जीवन-झाँकी-११
श्रीमद् प्रावन्दघनजी ने निरंजन सिद्ध परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधित किया है। सचमुच उनमें परमात्मा से मित्रता करने की योग्यता थी, इसी कारण उनके हृदय से निरंजन मित्र के विरह के उद्गार निकले हैं। दुर्ध्यान हटाये बिना परमात्मा के सुध्यान में स्थिरता नहीं पाती।
आध्यात्मिक ज्ञान-रस ही अमृत-रस है जिसका पान ज्ञानी ही कर सकते हैं। वे अपने उद्गारों के द्वारा अन्य मनुष्यों को लाभान्वित कर सकते हैं। ज्ञानियों के अन्तर में सर्वस्व का समावेश हो जाता है। उनके अगाध ज्ञान को कोई नाप नहीं सकता।
ध्यान से ही समस्त दुःखों का क्षय होता है। अतः कुसंगति का त्याग करके ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण से युक्त प्रात्मा का नित्य ध्यान करना चाहिए। ध्यान का वास्तविक अधिकार तो त्यागी एवं पंच महाव्रतधारी मुनिवरों को है। मान, पूजा एवं धन की आशा से रहित तथा आगमों के अनुरूप चलने वाले शान्त मुनिवर शुभ-ध्यानी बन सकते हैं। अतः भव्य जीवों को ध्यान की प्राप्ति के लिए अध्यात्म-ज्ञानी सद्गुरुओं एवं शास्त्रों की निरन्तर उपासना करनी चाहिए। ध्यान में उच्च दशा :
तत्पश्चात् योगिराज श्री आनन्दघनजी आबू पर्वत की कन्दराओं, मंडलाचल गिरि की कन्दराओं, सिद्धाचल, तलाजा, गिरनार, ईडर, तारंगा आदि निर्जन स्थानों में रहकर ध्यान-लीन रहने लगे। उस समय आबू पर्वत की कन्दराओं में अनेक फक्कड़ निवास करते थे, जिनमें कई तो विशिष्ट योगी थे। वे समय-समय पर श्रीमद् आनन्दघनजी से मिलते थे और उनसे मित्रता करते थे। श्रीमद् उनके साथ अनुभवों एवं विचारों का आदान-प्रदान करके उन्हें वीतराग धर्म का उपदेश देकर प्रानन्द-रस के प्रति रसिक बनाते थे। उस समय योग की ध्यान-दशा में रात्रि के समय कभी-कभी उनके पास साँप पाकर पड़े रहते। श्रीमद् के अहिंसा परिणाम की प्रतिष्ठा के कारण वे हिंसक एवं विषैले प्राणी उन्हें तनिक भी कष्ट नहीं देते थे। कभी-कभी तो आनन्दघनजी की गुफा के बाहर सिंह आकर कुत्तों की तरह बैठे रहते थे। रात्रि के समय सिंहों की दहाड़ मात्र से कायरों के हृदय दहल उठते थे, ऐसे पर्वत-शिखरों पर वे ध्यान-लीन होकर अपनी देह तक का भान भूल कर आनन्द में