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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०
मुझे निरंजन मित्र का मिलाप हो ? यदि मैं धरती में प्रविष्ट होकर देखता हूँ तो वहाँ भी मुझे निरंजन परमात्मा के दर्शन नहीं होते। कुछ व्यक्ति मित्र की प्राप्ति के लिए पंचाग्नि-साधना करते हैं। यदि मैं अग्नि को सहता हूँ तो मेरी देह जलती है। मैं अनेक कष्ट सहन करता हूँ, फिर भी मुझे निरंजन यार का मिलाप नहीं होता। अतः पंचाग्निसाधना भी उपयोगी प्रतीत नहीं होती। तो फिर मैं क्या उपाय करूँ कि जिससे निरंजन परमात्मा-मित्र की प्राप्ति हो? आत्मा की आत्मा के रूप में स्थिति होने को निरंजन यार का मिलाप कहा जाता है। प्रानन्दघनजी महाराज कह रहे हैं कि हे यशोविजयजी महाराज़.! आप मेरी बात सुनें। निरंजन यार का मिलाप होने से ही मेरा भव-भ्रमण का फेरा टलेगा। समस्त वस्तुओं की प्राप्ति की जा सकती है, परन्तु निरंजन परमात्म पद की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। निरंजन यार के मिलाप के लिए तो अनुभव ज्ञान की आवश्यकता है। उसका मिलाप हुए बिना स्थिरता नहीं हो सकती।
श्री आनन्दघनजी अपने मित्र यशोविजयजी को कह रहे हैं कि राग-द्वेष का पूर्णतः नाश हुए बिना निरंजन,, निराकार, ज्योतिस्वरूप परमात्मा का आविर्भाव नहीं होता। आत्मा का धर्म सचमुच आत्मा में समाविष्ट है। आत्मा के धर्म की प्राप्ति के लिए समाधि लेने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा की परमात्म-दशा होने के पश्चात् जन्म, जरा, मृत्यु के कष्ट नहीं रहते। श्रीमद् आनन्दघनजी ने निराकार प्रभु का ध्यान करने की अमुक अंश में योग्यता प्राप्त की थी। इस कारण ही वे निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट कर सके। उन्होंने जीवित समाधि लेने का खण्डन किया है। निराकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्नि में देह को भस्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देह जल जाने से कोई कर्म नहीं जल जाते। श्रीमद् आनन्दघनजी ने परमात्मा को अपना मित्र कहकर उनकी प्राप्ति की कामना की है। निराकार परमात्मा को मित्र कहने से पूर्व उनका मित्र बनने के लिए स्वयं में कितने गुण पाये हैं उनका यदि विचार किया जाये तो स्वयं के अधिकार का ज्ञान होता है और परमात्मा का मित्र बनने से क्या लाभ है यह भी ज्ञात हो जाता है। हम जिसके मित्र बनना चाहते हैं उसके समान गुण हमें अपने भीतर प्रकट करने चाहिए। परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधन करने से पूर्व यदि उन्हें पहचान नहीं सके तो उनकी मित्रता केवल नाम मात्र की माननी चाहिए।