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जीवन-झाँकी-६
प्रानन्दघनजी एकान्त में एकाकी रहकर साधना, भक्ति में लीन रहना चाहते थे। वे लोगों के अधिक सम्पर्क में आना नहीं चाहते थे। वे आबू पर्वत की गुफाओं में निवास करने लगे और आत्म-समाधि में सहज सुख का उपभोग करने लगे। वे राग-द्वेष से दूर रहने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य में जहाँ भावना शान्त रहे, ऐसे स्थान पर आन्तरिक चित्त की स्थिरता ज्ञान-दशा, ध्यान-दशा प्राप्त करने के लिए रहना चाहते थे। उन्होंने जन्म, जरा, मृत्यु, देह आदि के प्रति ममत्व एवं भय को अत्यन्त शिथिल कर दिया था। ऐसी ध्यान-दशा के कारण उन्हें बाह्य का भान नहीं था। श्री यशोविजयजी की स्तुति स्वरूप रचित अष्टपदी :
श्री आनन्दघनजी ने भी उपाध्याय श्री यशोविजयजी के गुणों के प्रति राग के कारण अपने हृदय के उद्गारों के रूप में उनकी 'अष्टपदी' की रचना की थी। उक्त अष्टपदी उपलब्ध नहीं है परन्तु बीजापुर (गुजरात) निवासी शा सूरचन्द सरूपचन्द का कथन है कि उन्होंने संवत् १६४५ में सूरत में अष्टपदी पढ़ी है, जिसमें उपाध्यायजी के गुणों का वर्णन है। ..
श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उपाध्याय श्री यशोविजयजी में प्रगाढ़ प्रम था, जिसका प्रमाण निम्नलिखित पद है
निरंजन यार मोहे कैसे मिलेंगे ?? निरंजन०॥ दूर देखू मैं दरिया डूंगर, ऊँचे बादर नीचे जमोयुतले ।
निरंजन० ॥१॥ धरती में गडुता न पिछानु, अग्नि सहूँ तो मेरी देही जले।
निरंजन० ॥२॥ अानन्दघन कहे जस सुनो बातां, ये ही मिले तो मेरी फेरी टले ।
निरंजन० ॥३॥ भावार्थ-योगिराज आनन्दघनजी कहते हैं कि कर्म रूपी अञ्जन से रहित परमात्मारूप शुद्ध मित्र का मिलाप मुझे कब होगा ? निराकार परमात्मा की प्राप्ति मुझे कैसे होगी? मैं दूर देखता हूँ तो सागर तथा पर्वत दृष्टिगोचर होते हैं और यदि गगन में ऊपर देखता हूँ तो बादल दृष्टिगोचर होते हैं और नीचे देखता हूँ तो धरातल दृष्टिगोचर होता है, परन्तु निरंजन परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, अरूपी परमात्म-स्वरूप का मिलाप नहीं होता। मैं क्या उपाय करूं कि