SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगि गज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०४ अर्थ-संसार में आशा-तृष्णा के बन्धन की और जंजीर के बन्धन की चाल एक दूसरे से सर्वथा विपरीत है। जंजीर से बँधा हुआ प्राणी तो अपने स्थान से तनिक भी इधर-उधर नहीं हो सकता, किन्तु आशातृष्णा से जकड़ा हुआ प्राणी संसार में दौड़ लगाता ही रहता है, भ्रमण करता ही रहता है तथा इस आशा-तृष्णा के बन्धन से मुक्त हुआ प्राणी एक स्थान पर स्थिर हो जाता है। वह भव-भ्रमण से मुक्त होकर आत्म-सुखों में स्थिर हो जाता है । (साखी) विवेचन-आशा रूपी जंजीर सचमुच लोहे की जंजीर से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि आशा रूपी जंजीर से चौरासी लाख जीवा योनि के जीव जगत् में दौड़ते रहते हैं। संसार में आशा के समान अन्य कोई बन्धन नहीं है। मनुष्य अनेक प्रकार की आशा में यत्र-तत्र दौड़ते रहते हैं। शहद की बूद की आशा में संसारी जीव गुरुदेव के उपदेशों को भी हृदयंगम नहीं कर सकते। मानव आशा के उपासक बन कर सन्तोष की उपासना भूल जाते हैं। जब तक मन में आशा रूपी दावानल जलती है तब तक आत्मा को वास्तविक शान्ति प्राप्त नहीं होती। आशा से ही समस्त प्रकार के दु:खों की उत्पत्ति होती है। अतः आशा का परित्याग करके सन्तोष धारण करें ताकि आत्मा का सच्चा सुख प्राप्त हो सके। हे अवधत! आत्मन् ! इस देह रूपी मठ में क्या सोया पड़ा है ? अचेत क्यों हो रहा है ? तनिक जांग्रत होकर अपने अन्तर को देख । सोच कि क्या हो रहा है ? इस देह रूपी मठ का तू तनिक भी विश्वास मत कर। पता नहीं यह कब धराशायी हो जाये ? अतः अपनी समस्त हलचल (मोह-माया) को छोड़ कर अपना अन्तर टटोल । इस हृदय रूपी सरोवर के जल में रमण करने वाले आत्माराम को पहचान ।। १ ।। विवेचन-हे अवधूत आत्मन् ! तू अभी तक 'तन मठ में ममत्व नींद में क्यों सोया पड़ा है ? देह रूपी मठ क्षणिक है, नश्वर है, अतः इसका विश्वास मतकर, क्योंकि मन में उठने वाली राग-द्वेष की चंचलता नष्ट करके तुझे अपने शुद्ध स्वरूप की खबर लेनी है। इस देह रूपी मठ में पंच भूत का निवास है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु तत्त्व का स्थान देह है, उसी प्रकार से मठ भी इन तत्त्वों से निर्मित है। इस देह रूपी मठ में साँस रूपी धर्त, दुष्ट
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy