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श्री आनन्दघन पदावली - १०३
प्रवाह होता है जिससे द्वष रूप मलिनता नष्ट हो जाती है । जो मनुष्य वीतराग - पद प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें प्रथम इसी दशा का अनुभव होगा । शुद्ध प्रेम के बिना कोई भी मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म बाँधने में समर्थ नहीं हो सकता । देव, गुरु तथा धर्म के राग का भी प्रेम में समावेश हो जाता है । देव गुरु की भक्ति को भी प्रेम जीवित रखता है । गुरु की कृपा-दृष्टि का सिंचन भी प्रेम ही करता है और महात्माओं का आशीर्वाद प्राप्त कराने वाला भी प्रेम है। शुद्ध प्रेम में देह, मृत्यु, लज्जा एवं लोक-विरोध आदि की भी कोई परवाह नहीं रहती । सुमति ने चेतन - स्वामी के शुद्ध प्रेम में रंग कर जो-जो उद्गार व्यक्त किये हैं उन पर मनन करना चाहिए ।
( ३६ )
( राग आसावरी )
साखी - जग श्रासा जंजीर की गति उलटी कुल मौर ।
जकरचौ धावत जगत में, रहे छूटो इक ठौर || ( साखी ) श्रधू क्या सोवे तन मठ में, जागि विलोकन घट में ।। तन मठ की परतीत न कीजे, ढहइ परे पल में । हलहल मेटि खबरि लै घट की, चिन्हे
एक रमता जल में ||
मठ में पंच भूत का वासा, सांसा धूत खबीसा |
छिन छिन तोहि छलनकु चाहै, समझे न बौरा सीसा ||
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निर पर पंच बसे परमेश्वर, घट में आप अभ्यास प्रकासे विरला, निरखे
औौधू० ।। १ ।।
आसा मारि प्रसरण धरि घट में, अजपा आनन्दघन चेतनमय मूरति नाथ
धू० ।। २ ।।
सूछिम बारी । धू की तारी ॥
प्रौधू० ।। ३ ।।
जाप जगावे ।
निरंजन पावे ||
प्रौधू० ।। ४ ।।