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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०८
अर्थ - योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी दो सांसारिक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार जुनारी की वृत्ति सदा जए के दाव-पेच में और व्यभिचारी पुरुष का मन सदा स्त्रियों में लगा रहता है, उसी प्रकार हे भव्य प्राणियो ! अपनी प्रबल लगन से तुम प्रभु के नाम तथा गुणों का स्मरण करो ॥४॥
विवेचन-जुआरी के मन में कोई भी कार्य करते समय जूए की रटन रहती है और कामी व्यक्ति के मन में प्रति पल काम-वासना की धुन लगी रहती है, इसी प्रकार हे चेतन ! तू भी भगवान के सद्गुरण प्राप्त करने के लिए हृदय से भगवान के नाम का जाप किया कर। अतः हे चेतन ! तू भगवान की धुन में रहने की सुरता प्राप्त कर । तू निरन्तर भगवान का अन्तर से स्मरण किया कर।
(५) . चेतन सकल वियापक होई। . सत असत गुण परजाय परिणंति, भाउ सुभाउ गति जोई ।।
चेतन० ॥ १ ॥
स्व-पर रूप-वस्तु की सत्ता, सीझे एक नहीं दोई । सत्ता एक अखंड अबाधित, यह सिद्धत पच्छ जोई ।।
चेतन० ।। २ ॥ अन्वय अरु व्यतिरेक हेतु को, समझि रूप भ्रम खोई । पारोपित सब धर्म और हैं, आनन्दघन तत सोई ।।
चेतन० ।। ३ ।।
अर्थ -यह चेतन सर्वव्यापक बना है। लोक, अलोक की सब स्थिति प्रात्मा जानता है। केवली समुद्घात के समय यह आत्मा लोकप्रमाण अपने प्रात्मप्रदेशों में फैलता है, इस प्रकार भी वह सर्व व्यापक होता है, अन्यथा तो यह आत्मा देह के प्रमाण ही होता है। ये दोनों अवस्थाएँ केवलज्ञान प्राप्ति पर ही होती हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी वही स्थिति प्राप्त करने के लिए कहते हैं कि हे चेतन ! सर्व व्यापक बन, ऐसा उद्यम कर जिससे केवलज्ञान प्राप्त हो।