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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२०७ जाती हैं और कास, चारा आदि चरती हैं; वे चारों दिशाओं में घूमती हैं परन्तु उनकी चित्तवृत्ति तो अपने बछड़े में ही रहती है ।।१।। विवेचन-हे जीव ! यदि तू अन्तराय कर्म के उदय से सर्वविरति का सेवन न कर सके तो भी अपनी चित्त-वृत्तियों को सदा पात्माभिमुख रख । इसमें तनिक भी प्रमाद मत कर, आत्म-जागृति रख और अपने में कत्त त्व का आरोपण न करके साक्षीभाव का आरोपण कर । अर्थ-योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी आगे कहते हैं कि पाँच-सात सहेलियाँ हिलमिल कर पानी भरने के लिए जाती हैं, तालियाँ बजाती हैं, खिल-खिलाकर हँसती हैं, किन्तु उनका चित्त तो सिर पर रखे हुए घड़े में हो रहता है। समस्त कार्य करते हुए भी उनका ध्यान तो इसी में रहता है कि कहीं घड़ा सिर पर से गिर न जायें ।।२।। विवेचन- श्रीमद् कहते हैं कि हे आत्मन् ! बाह्य जगत् के अनेक कार्य करते हुए भी अन्तर से निलिप्त रहना चाहिए। जो लोग उच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे क्रमशः अन्तर से प्रभु के ध्यान में लीन रहते हैं। जिस प्रकार सहेलियाँ समस्त कार्य करती हैं परन्तु उनका ध्यान सिर पर रखे घड़े में रहता है, उसी प्रकार हे प्रात्मन् ! तुम्हें भी हृदय में अध्यात्म ज्ञान के योग से ध्यान रखकर आवश्यक बाह्य क्रियाएँ करनी चाहिए और अन्तर में निरन्तर भगवान का स्मरण करना चाहिए। अर्थ-योगिराज पुनः उदाहरण देते हुए कहते हैं कि नट आम बाजार के चौक में नृत्य करता है, दर्शक अनेक बातें करते हैं, शोर करते हैं। वह नट बाँस लेकर रस्से पर चढ़कर अनेक कलाएँ दिखाता है। वह लोगों के शोरगुल में ध्यान न देकर अपना चित्त अपने कार्य में लगाये रखता है। उसका चित्त अन्यत्र जाता ही नहीं है ।।३।। . विवेचन-नट नत्य करता है, लोग शोर मचाते हैं, फिर भी उसका चित्त चलित नहीं होता। वह लोगों की ओर ध्यान देता ही नहीं। उसी प्रकार हे चेतन ! तू भी अन्तर से प्रभु पर प्रेम से स्थिरता रख । भगवान के लाखों जाप किये जायें परन्तु भगवान के सद्गुण प्राप्त करने में लक्ष्य न रखा जाये तो हृदय की शुद्धि नहीं होती। अतः प्रभु के गुणों को समझकर उनके गुणों में सुरता रखनी चाहिए। हे चेतन ! तू भी गुण ग्रहण करने के लिए हृदय में प्रभु की सुरता धारण कर ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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